पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४९२

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"आह । कल्पना का सुन्दर यह, जगत मधुर कितना होता। सुख स्वप्नो का दल छाया मे पुलकित हो जगता-सोता। संवेदन का और हृदय का यह सघप न हो सकता, फिर अभाव असफलताओ की गाथा कौन कहा बक्ता । क्ब तक और अकेले ? कह दो मेरे जीवन बोलो ? विसे सुनाऊँ कथा? कहो मत, अपनी निधि न व्यथ खोलो। sho "तम पे सुदरतम रहस्य, हे काति किरण रजित तारा। व्यथिन विश्व के सात्विक शीतल विदु, भरे नव रस सारा । १ नवपाति-मई १९२८ में प्रकाशित । आला ॥४७॥