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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५२७

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हम भूख प्यास से जाग उठे, आकाक्षा तृप्ति समन्वय म, रति काम बने उस रचना मे जो रही नित्य यौवन वय मे।" "सुरबालाओ की सखी रही उनकी हत्तनी की लय थी, रति, उनके मन को सुलझाती वह राग भरी थी, मधुमय थी। मैं तृष्णा था विकसित करता वह तृप्ति दिखाती थी उनको, आनद-समवय होता था हम ले चलते पथ पर उनको। वे अमर रहे न विनोद रहा, चेतनता रही, अनग हुआ, हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये सचित का सरल प्रसग हुआ।" प्रसाद वाङ्गमय ॥४८४ ।।