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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६२८

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तुम कहती हो विश्व एक लय है, मैं उसमे, लीन हो चर' किन्तु धग है क्या सुख इसमे । बदन का निज अलग एक आकाश बना लं, उस गेदन मे अट्टहास हो तुमका पा लूं। फिर से जलनिधि उछल वहे मर्यादा बाहर फिर झझा हो वन प्रगति से भीतर वाहर । फिर डगमग हा नाव लहर ऊपर से भागे । रवि शशि तारा सावधान हो चौंके जागे ! हो तुम, किंतु पाम ही रहो वालिके । मेरी मैं हूँ कुछ खिलवाड नही जो अब खेलो तुम?" "आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें, तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते। प्रजा क्षुब्ध हो शरण मागती उधर खडी है, प्रकृति सतत आतक विकपित घडी घडी है। ? सावधान ! मैं शुभाकाक्षिणो और कहूं क्या कहना था कह चुकी और अब यहा रह क्या?" सघप ॥६०५॥