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व्यथा, अभी घायलो की सिसको मे जाग रही थी पुर लक्ष्मी खगरव के मिस कुछ कह उठती थी करुण कथा निकल रहा, कुछ प्रकाश धूमिल सा उसके दीपो से था पवन चल रहा था रुक रुक कर खिन्न भरा अवसाद रहा। भय मय मीन निरीक्षक सा था सजग सतत चुपचाप खडा, अधकार का नील आवरण दृश्य जगत से रहा बडा । मडप के सोपान पडे थे सूने, कोई अन्य नही, स्वय इडा उस पर बैठी थी यग्नि शिसा थी धधक रही। प्रसाद वाङ्गमय ॥६१६॥