पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४२

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"कितना दुखी एक परदेशी बन, उस दिन जो आया था, जिसके नीचे धरा नही थी शून्य चतुर्दिक छाया था। वह शासन का सूत्रधार था नियमन का आधार बना, अपने निर्मित नव विधान से स्वय दड साकार बना। "सागर की लहरो से उठ कर शैल श ग पर सहज चढा, अप्रतिहत गति, सस्थानो से रहता था जो सदा बढा। आज पडा है वह मुमूषु सा वह अतीत सब सपना था, उसके ही सब हुये पराये सबका ही जो अपना था। निर्वेद ॥ ६१९॥