सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यहाँ लिये दायित्व कर्म का उत्नति करने के मतवाले, जला जला कर फूट पड रहे दुल कर वहने वाले छाले। यहा राशिकृत विपुल विभव सब मरीचिका से दीख पड रहे, भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे विलीन, ये पुन गड रहे । बडी लालसा यहाँ सुयश की अपराधो की स्वीकृति बनती अन्ध प्रेरणा से परिचालित कर्ता मे करत निज गिनती। प्राण तत्व की सघन साधना जल, हिम उपल यहाँ है बनता, प्यासे घायल हो जल जाते मर मर कर जीते ही बनता। यहाँ नील लोहित ज्वाला कुछ जला गला कर नित्य ढालती, चोट सहन कर रकने वाली धातु, न जिसको मृत्यु सालती । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६७८ ॥