पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आसन तेरे अमोल कपोल मनोरथ जो तेहि पै बिठलायो नैन के आसव चारु गुलावी छकाय के ही मतवालो बनायो कु तलदाम म फासि के ताहि भले विधि ही पुनि नाच नचायो बाहर जान न पावत रूप रहे अग मै औ पर उफनायो कीन्ही कठोरता जो हमते तक हाय की हूक हिये रहि जायगी दीठि वचाय के फेरत जो रुख तौ ह को न की मिलि जायगी नोके विचरि ले ये मनमाहि 'कलाधर' हूँ की कला घटि जायगी प्रेमी के राह को छोडिबे की सिल तेरी निसानी हिये धरि जायगी तोरि के नेह को काचो तगा तुम कोन्ही दगा यह नीक ना कीन्ही जो यह तेरे रही मनमाहितो क्यो पहिले ही नही कहि दीन्ही नैन की हाला छकाय बेहाल के फेरि ले कुन्तल मे कसि दीन्ही बेबस कै के 'कलाधर' को दिल दागि के काहे प्रिये तजि दोन्ही चिनाधार ॥५॥ th