पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०१

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द्वितीय खण्ड एक ओर ता जल वरस रहा था, पुरवाई स वूद तिरछी हाकर गिर रही थी उधर पश्चिम से चौथे पहर को पीली धूप उनम केसर घोल रही थी। मथुरा से वृन्दावन आनेवाली सडक पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में बैठा हुआ विजय एक उपन्यास पढ रहा था। निरजन सवाकुज में दर्शन करने गया था । किशारी बैठी हुई पान लगा रही थी। तीर्थ-याना के लिए थावण स हो लोग टिक थे । झूल की बहार थी, घटाआ का जमघट । उपन्यास पूरा करत हुए विश्राम की सास लेकर विजय ने पूछा-पानी और धूप से बचने के लिए वह पतली चादर क्या काम देगी यमुना? बावाजी के लिए भघा का जल संचय करना है । वे कहते है कि इस जल स अनेक रोग नष्ट हात हैं। रोग नष्ट चाहे न हो, पर वृन्दावन के खार कूप-जल स तो यह अच्छा ही हागा ! अच्छा एक ग्लास मुझे भी दी। विजय बाबू, वाम वही करना, पर उसकी कडी समालोचना के वाद, यह ता आपका स्वभाव हो गया है। लीजिए जल~-कहकर यमुना ने पीन के लिए जल दिया। उसे पोकर विजय ने कहा-यमुना, तुम जानती हा कि मन कालेज म एक सशोधन समाज स्थापित किया है । उसका उद्देश्य है--जिन वाता म बुद्धिवाद का उपयोग न हो सके, उसका खण्डन करना और तदनुकूल आचरण करना। दख रही हो कि मैं छूत-छात का कुछ विचार नहीं करता, प्रकट रूप से होटला तक मे खाता भी हूँ। इसी प्रकार इन प्राचीन कुसस्वारो का नाश करना मै अपना कर्त्तव्य समझता है, क्योकि ये ही रूढ़ियाँ आगे चलकर धर्म का रूप धारण कर लेती हैं । जो बात कभी देश, काल, पात्रानुसार प्रचलित हो गई थी, वे सब ककाल ७१