पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०६

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की एक-एक प्रतियाँ | इतनी ही ता मेरे ऋपिकुल को सम्पत्ति है। -कहतेकहते वह हंस पड़ा। यमुना भीतर पीलीभीत के चावल बीन रही थी-खीर बनाने क लिए । उसक रोएँ खड हो गये । मगल क्या है ? -देवता है । उसी समय उसे अपन तिरस्कृत हृदय-पिण्ड का ध्यान आ गया। उसने मन म सोचा-पुरुष को उसकी क्या चिन्ता हो सकती है, वह तो अपना मुख विसर्जित कर देता है, जिसे अपने रक्त स उस सुख को सीचना पडता है, वही ता उसकी व्यथा जानेगा । —उसन कहा-मगल ही नही, सब पुरुष राक्षस हैं, देवता कदापि नही हो सकते ।----वह दूसरी ओर उठकर चली गई। कुछ समय चुप रहन के वाद विजय न कहा--जा हमारे दान क अधिकारी है, धर्म के ठेकेदार है, उन्हे इसीलिए तो समाज देता है कि वे उसका सदुपयोग करे, परन्तु वे मन्दिरो म, मठो म बैठे मौज उडाते है-उन्ह क्या चिन्ता कि समाज के कितन बच्चे भूख, नगे और अशिक्षित हैं । मगलदेव । चाहे मरा मत तुमस न मिलता हा, परन्तु तुम्हारा उद्देश्य सुन्दर है । निरजन जैस सचेत हो गया। एक बार उसन विजय की आर देखा, पर वाला नहीं । किशारी ने कहा-मगलदेव | मै परदेश में हूँ, इसलिए विशेष सहायता नही कर सकती, हो तुम लोगा के लिए वस्त्र और पाठ्य-पुस्तका की जितनी अत्यन्त आवश्यकता हो, मैं दूंगी। और, शीत, वा-निवारण के योग्य साधारण गृह बनवा देने का भार मैं लेता हूँ मगल | ~निरजन ने कहा । मगल | मैं तुम्हारी इस सफलता पर बधाई देता हूँ। --हसत हुए विजय न कहा—कल मैं तुम्हारे ऋपिकुल म आऊँगा। निरजन और किशोरी न कहा-हम लोग भी। मगल वृतज्ञता स लद गया । प्रणाम करके चला गया। सब का मन इस घटना से हल्का था, पर यमुना अपने भारी हृदय स वारवार यही पूछती थी-इन लोगा ने मगल का जलपान करने तक के लिए न पूछा, इसका कारण क्या उसका प्रार्थी होकर आना है ? यमुना कुछ अनमनी रहने लगी। किशोरी से यह वात छिपी न रही । घण्टी प्राय इन्ही लागा के पास रहती। एक दिन किशारी न कहा--विजय, हम लागा को बज आय बहुत दिन हो गये, अब घर भी चलना चाहिए । हा सके ता ब्रज की परिक्रमा भी कर ले। विजय न कहा-मैं ता नही जाऊंगा। ___७६ प्रसाद वाड्मय