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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१९५

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किशोरी न पगली से कहा-तुम्हे भूख लगी है, कुछ खाआगी? पगली और बालक दानो ही उनक प्रस्तावो से सहमत थे, पर वोल नही । इतन म श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया, और बोला-बावूजी आप कब से यहाँ फसे हैं। यह तो चाची का पालित पुन है, क्या र मोहन । तू अभी से स्कूल जाने लगा है ? चल, तुझे घर पहुंचा दं? -वह श्रीचन्द्र की गोद से उस लेने लगा परन्तु मोहन वहा से उतरना नही चाहता था। मै तुझको कब से खाज रही हूँ, तू वडा दुष्ट है रे । --कहती हुई चाची ने आकर उस अपनी गोद मे ल लिया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। वह कह रही थी—वह दखा, प्रकाश भागा जाता है अन्धकार । कहकर पगली वेग से दौडने लगी थी । ककड, पत्थर और गड्ढो का ध्यान नहीं । अभी थोडी भी दूर वह न जा सकी थी कि उस ठाकर लगी, वह गिर पड़ी। गहरी चाट लगन से वह मूच्छित सी हो गई। यह दल उसके पास पहुंचा । श्रीचन्द्र न पडाजी स कहा—इसकी सवा हानी चाहिए, बेचारी दुखिया है । पडाजी अपन धनी यजमान को प्रत्येक आज्ञा पूरी करन के लिए प्रस्तुत थे । उन्हाने कहा-चाची का घर तो पास ही है वहाँ उस उठा ल चलता हूँ। चाची न मोहन और श्रीचन्द्र के व्यवहार को देखा था, उस अनेक आशा थी। उसने कहा-हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चाट लगी है, उतर तो मोहन । —माहन को उतारकर वह पडाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले चली। मोहन राने लगा । श्रीचन्द्र न कहा-ओहो तुम बडे रोन हो जी ? गाडी लेन न चलागे? चलूगा-नुप होत हुए माहन न कहा । माहन क मन म पगली स दूर रहने की बडी इच्छा थी। श्रीचन्द्र न पडा का कुछ रुपये दिये कि पगली के आराम का कुछ उचित प्रबन्ध किया जाय, और बोले-चाची, मैं मोहन को गाडी दिलाने के लिए बाजार लिवाता जाऊँ ? चाची ने कहा-हा हा, आपका ही लडका है। मैं फिर अभी आता हूँ, आपके पडोस म ही तो ठहरा हूँ।—कह कर श्रीचद्र, किशोरी और मोहन बाजार की ओर चले। ऊपर लिखी हुई घटना को महीना बीत चुके थे। अभी तक श्रीचन्द्र और किशोरी अयोध्या मे ही रहे । नागेश्वरनाथ क मन्दिर क पास ही डेरा था। सरयू की तीव्र धारा सामने बह रही थी । स्वर्गद्वार क घाट पर स्नान कर क श्रीच द्र, किशोरी बैठे थे । पास ही एक बैरागी रामायण की कथा कह रहा था ककाल १६७