पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३०४

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तुम कुछ देख रही हो? सब कुछ। किन्तु इतन विचारमूढ क्यो हा रह हा? यही समझ मे नही आता। __ तुम्हारी वह कल्पना सफल होती नहीं दिखाई देती। इसी का मुझे दुख किन्तु अभी हम लोगो ने उसके लिए कुछ किया भी तो नहीं। कर नहीं सकते । यह मैं नही मानती। तुमको कुछ मालूम है कि तुम्हारे सम्बन्ध मे यहाँ कैसी बाते फैलाई जा रही हाँ । मैं रात-रात को घूमा करती हूँ, जो भारतीय स्त्रिया के लिए ठीक नहीं । मैं रामनाथ के यहाँ सस्कृत पढने जाती है। यह भी बुरा करती है। और, तुमको भी बिगाड रही हूँ। यही बात न ? अच्छा, इन बातो के किसी-किसी अश पर देखती हूँ कि तुम भी अधिक ध्यान देने लगे हो। नही तो इतना सोचनेविचारने की क्या आवश्यकता थी ? मैं इतना ही नही । मैं अब इसलिए चिन्तित हूँ कि जपना और तुम्हारा सम्बन्ध स्पष्ट कर दूं । यह ओछा अपवाद अधिक सहन नहीं किया जा सकता। किन्तु मैं अभी उस प्रश्न पर विचारने की आवश्यकता ही नही समझती। -शैला ने ईपत् हंसी से कहा। क्यो? तुम्हारे ससर्ग स जो मैने सीखा है, उसका पहला पाठ यही है कि दूसरे मुझको क्या कहते है, इम पर इतना ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। पहले मुझे ही अपने विषय में सच्ची जानकारी होनी चाहिए । मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी जमोदारी के दातव्य विभाग से जो खर्च स्वीकृत हुआ है, उसी मे मै अपना और औषधालय का काम चलाऊँ । बैंक में भी कुछ काम कर सकू, ता उससे भी कुछ मिल जाया करेगा । और मेरी स्वतन्त्र स्थिति इन प्रवादो को स्वयं ही स्पष्ट कर देगी। यात तो ठीक है-इन्द्रदव ने कुछ सोचकर धीरे मे कहा। पर इसके लिए तुमको एक प्रबन्ध कर देना पडेगा। पहले मैन साचा था कि गांव में कई जगह कर्म-केन्द्र की सृष्टि हो सकती है। भिन्न-भिन्न शक्ति वाले अपने-अपने काम में जुट जायेगे। किन्तु अव मैं देखती हूँ कि इसम बडी वाधा है, २७६ : प्रसाद वाङ्मय