पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३३३

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वाहर से चचल और भीतर से गहरे मनोयोग-पूर्वक प्रयत्न करने वाली चतुर स्त्री है । उस दिन शैला और मधुबन के सम्बन्ध म हँसी-हँसी से कितना गम्भीर व्यग कर गई । वह क्या चाहती है। हंसते-हंसते अपने यौवन से भरे हुए अगा को, लोट-पाट होकर असावधानी से, दिखा देने का अभिनय करती है, और कान में आकर कुछ कहन के वहान हँसकर लौट जाती है। वह धर्म-परिवर्तन की भी बाते करती है । उसे हिन्दू आचार-विचार अच्छे लगत है । रहन-सहन, पहिनावा और खाना-पीना ठीक-ठीक । जैसे मेरे कुटुम्ब की स्त्रियाँ भी उसे अपने मे मिला लेन म हिचकगी नही । यह मुझे कभी-कभी टटोलती है । पूछती है-'क्या स्त्रियो को शैला की तरह स्वतन्त्रता चाहिए ? अवरोध और अनुशासन नही ? मैं तो किसी से भी ब्याह कर लूं और वह इतनी स्वतन्त्रता मुझे दे तो मैं ऊब जाऊंगो। वह हंसी म कहती है । सब हंसने लगती है । सब लोगो को शैला पर कही हुई यह बात अच्छी लगती है । और मैं । दवते-दबते मन म अनवरी का समथन क्या करने लगता हूँ? वह ढीठ अनवरी-मां से हंसी करती हुई पूछती है, मैं हिन्दू हो जाऊं तो मुझे अपनी बहू बनाइयेगा? मां हंस देती है। दूसरे दिन रात को, जब सब लोग सो रहे थे, मै ऊंघता हुआ विचार कर रहा था । फिर वैसा ही शब्द हुआ। मैंने पूछा-कौन ? ___ मैं हूँ---कहती हुई अनवरी भीतर चली आई । मेरा मन न जाने क्या उद्विग्न हो उठा। पढते-पढते शैला न घबराकर डायरी बन्द कर दी। सोचने लगी---इन्द्रदेव कितनी मानसिक हलचल म पडे हैं और यह अनवरी । केवल इन्द्रदेव के परिवार से सहानुभूति के कारण वह मेरे विरुद्ध है, या इसम कोई और रहस्य है | क्या वह इन्द्रदेव को चाहती है ? क्षण भर सोचने पर उसने कहा--नही, वह इन्द्रदेव को प्यार कभी नहीं कर सकती।—फिर डायरी के पन्ने खोलकर पढने लगी। उसने सोचा कि मुझे ऐसा न करना चाहिए, किन्तु न जाने क्यो उसे पढ लेना बह अपना अधिकार समझती थी। हाँ, तो वह आगे पढने लगी-- वह मेरे सामने निभीक होकर बैठ गई । गम्भीर रात्रि, भारतीय वातावरण, उसमें एक युवती का मरे पास एकान्त मे विना सकोष के हंसना-बोलना। शैला के लिए तो मेरे मन में कभी एसो भावना नहीं हुई। तव क्या मेरा मन चोरी कर रहा है ? नहीं, मैं उसे अपने मन से हटाता हूँ। अरे, उसे क्यों, अनवरी को नही । उसक प्रति अपन सदिग्ध भाव को । मुझे वह छिछोरापन भला तितली. ३०५