पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४१०

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वह फिर उसी बनजरिया म घुसता है। फिर तितली का भोला-सा सुन्दर मुख ! उसका साहस विचलित होता है। शरीर कांपने लगता है और आँखे खुल जाती हैं । वह पसीने से तर उठ बैठता है। दिन ढल चुका है। वह धीरे-धीरे अपनी कन्दरा से बाहर आया । गगा की तरी मे खेत मुनसान पडे थे। फसल कट चुकी थी। दूर पर किले की भद्दी प्राचीर ऊँची होकर दिखाई पड़ी। वह धीरे-धीरे बाजार की ओर न जाकर क्लेि की ओर चला। मूर्य डूब रहे थे । अभी कोयले से भरी हुई छोटी-छोटी हाथ-गाडियां रिफार्मेटरी के लडके ढकेल रहे थे । मधुबन ने आंख गडाकर देखा, वह, वह, रामदीन तो नही है । है तो वही। वह वेग से चलने लगा और रामदीन के पास जा पहुंचा। उसने कहा---- रामदीन । रामदीन ने एक बार इधर-उधर देखा, फिर जैसे प्रकृतिस्थ हो गया। इधर कई महीना से वह धामपुर को भूल गया था। उसे अच्छा खाना मिलता । काम करना पडता । तव अन्य बातो की चिन्ता क्यो करे ? आज सामने मधुबन । क्षण भर म उसे अपने बन्दी-जीवन का ज्ञान हो गया। वह स्वतन्त्रता के लिए छटपटा उठा। मधुबन बाबू । --वह चीत्कार कर उठा । क्या तू छूट गया रे, नौकरी कर रहा है ? नही तो, वही जेल का कोयला ढो रहा हूँ। और कौन है तेरे साथ? कोई नही, यही अन्तिम गाडी थी। मैं ले जा रहा हूँ और लोग आगे चले गये है। दूर पर प्रशान्त सन्ध्या की छाती को धडकाते हुए कोई रेलगाडी स्टेशन की ओर आ रही थी। बिजली की तरह एक बात मधुवन के मन में कौध उठी। उसने पूछा-मैं कलकत्ता जा रहा हूँ-तू भी चलेगा? ___रामदीन-नटखट रामदीन । अवसर मिलने पर कुछ उत्पात-हलचल--- उपद्रव मचाने का आनन्द छोडना नहीं चाहता। और मधुबन तो ससार की व्यवस्था के विरुद्ध हो ही गया था। रामदीन ने कहा—सच | चलूं ? हाँ, चल! रामदीन ने एक बार किले की धुंधली छाया को देखा और वह स्टेशन की ओर भाग चला। पीछे-पीछे मधुबन । ३८६: प्रसाद वाङ्मय