पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४४

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मगल-धीरेन्द्र, ऐसा अनुरोध न करा। वीरेन्द्र-यह मेरा हठ है । और तुम जानते हो कि मेरा काई भी विनाद तुम्हारे बिना असम्भव है, निस्सार है। दखो, तुमसे स्पष्ट कहता है। उधर देखो--वह एक वाल वेश्या है, मैं उसके पास जाकर एक बार केवल नयनाभिराम रूप देखना चाहता हूँ। इमसे विशेष कुछ नही । मगल---यह कैसा कुतूहल |--छि । वीरेन्द्र-तुम्ह मेरी सौगध पांच मिनट म अधिक नही लगेगा, हम लौट आवगे। चलो, तुम्ह अवश्य चलना होगा। मगल, क्या तुम जानत हा, मैं तुम्ह क्या ले चल रहा है ? मगल-क्यो? वीरेन्द्र-जिसमे तुम्हार भय से मे विचलित न हो सकू | मैं उस दखूगा अवश्य, परन्तु आग के डर से वचाने वाला साथ रहना चाहिए। मित्र, तुमको मेरी रक्षा क लिए साथ चलना हो चाहिए । मगल न कुछ माचरर कहा- चला । परन्तु बाध में उसकी आँख लाल हो गई थी। वह वीरन्द्र के साथ चल पडा । सीढिया स ऊपर कमरे म दाना जा पहुचे । एक पोडशी युवती सजे हुए कमर में बैठी थी। पहाडी रूखा सादय उसव गेहुएँ रग मे ओत-प्रोत है । सव भर हुए अगा म रक्त वा वेगवान सचार कहता है कि इसका तारुण्य' इसस कभी न छूटेगा। बीच स मिली हुई घनी भौहा के नीचे न जाने कितना अन्धकार खन रहा था । सहज नुकीली नाक उसकी आकृति की स्वतन्त्र सत्ता बनाय थी। नीच सिर किय हुए उसने जब इन लोगा को देखा, तब उस समय उसकी बडी-बडी आँखा व कान आर भी खिच हुए जान पडे । धन काले वाला के गुच्छे दोना कानो के पास क पन्धा पर लटर रह थे । वाय कपाल पर एक तिन उसक मरल मौन्दय को वाना बनाने के लिए पर्याप्त था। शिक्षा के अनुसार उसने सलाम किया परन्तु यह युल गया कि अन्यमनस्य रहना उसकी स्वाभाविकता थी। मगलदव न दखा कि यह ता वश्या वा-सा रूप नहीं है । वीरन्द्र न पूछा-लापका नाम ? उसक 'गुलनार कहन म कोई वनावट न थी। महसा मगन चौक उठा उसन पूछा-क्या हमने तुमको कही और भी देखा यह अनहानी बात नही है । १४ प्रवाद वाङमय