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मूझी। उसने पूछा-चाचा ! तुमने ब्याह क्यो नही किया ? वुआ तो कहती थी, लडकी बडी अच्छी है । तुम्ही ने नाही कर दी। ____ हां रे मोहन ! लडकी अच्छी होती है, यह तू जानने लगा । कह नो, मैं ब्याह करके क्या करूंगा ? उसको खाने के लिए कौन देगा? ____ मैं दूंगा, चाचा । यह सब इतना-सा अन्न कोठरी मे रखा रहता है । हर साल देखता हूँ कि उसमे धुन लगते है, तब वुआ उसको पिसाकर इधर-उधर बाँटती फिरती है। चाची को खाना न मिलेगा। वाह, मैं बुआ की गर्दन पर जहाँ चढा, सीधे से थाली परस देगी। ___ तुम बडे बहादुर हो । क्या कहना । पर भाई, अब तो मैं तुम्हारा ही ब्याह करूँगा ! अपना तो चिता पर होगा। छी-छी चाचा, तुम्ही न कहते हो कि बुरी बात न कहनी चाहिए । और अब तुम्ही...देखो, फिर ऐसी बात करोगे तो मैं बोलना छोड दूंगा। रामजस को आँखो मे आँसू भर आये । उसे मधुवन का स्मरण व्यथित करने लगा। आज वह इस अमृत-वाणी का मुख लेने के लिए क्यो नही अन्धकार के गर्त से बाहर आ जाता । उसकी उदासी और भी बढ गई। धीरे-धीरे धुंधली छाया प्रकृति के मुंह पर पडने लगी। दोनो घूमते-घूमते शेरकोट के खंडहर पर पहुँच गये थे। मोहन ने कहा-चाचा | यह तो जैसे कोई मसान है ? लम्बी साँस लेकर रामजस ने कहा-हाँ वेटा ! मसान ही है । इसी जगह तुम्हारे वश की प्रभुता की चिता जल रही है । तुमको क्या मालूम; यही तुम्हारे पुरुषो की डीह है । तुम्हारी ही यह गढी है । मेरी ?–मोहन ने आश्चर्य से पूछा। हाँ तुम्हारी, तुम्हारे पिता मधुबन का ही घर है। मेरे पिता । दुहाई चाचा । तुम एक सच्ची वात बताओगे ? मेरे पिता थे ! फिर स्कूल में रामनाथ ने उस दिन क्यो कह दिया कि-चल, तेरे बाप का भी ठिकाना है ! किसने कहा बेटा ! बता, मैं उसकी छाती पर चढकर उसकी जीभ उखाड लूं । कौन यह कहता है ? अरे चाचा ! उसे तो मैंने ही ठोक दिया। पर वह वात मेरे मन मे कांटे की तरह खटक रही है । पिताजी हैं कि मर गये, यह पूछने पर कोई उत्तर क्यो नही देता । वुआ चुप रह जाती हैं । मां आँखो मे आँसू भर लेती हैं । तुम बताओगे, चाचा! तितली: १२६