पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६३

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"यह देव-मन्दिर है या रंगशाला?" "कुमार ! शान्त रहिए!" साथी ने कहा । कुमार को आखे जल उठी। उसने एक बार अपने साथियो को देखा, जैसे अपने बल का अनुमान करता हो। फिर उसने देखा अपने समीप ही खड़े हुए उस युवा पथिक को, जो तन्मय होकर अपलक आखो से नर्तकी को देख रहा था । मूतिमती कला का वायवीय आकर उसके हृदय के भीतर स्पर्ण करके मधुरता से भर रहा था। कुमार व्यग से हंस पडा । उसने चौककर कुमार को देखा। जैसे जन्मजात दो विरोधी एक-दूसरे को अकस्मात् दीख पडे, वही दशा उन दानो को हुई। नर्तकी ने गायन प्रारम्भ किया। उसको पञ्चम तान सभा-मण्डप म गूंज उठी । और युवा परदेशी ! वह तो जैसे पागल हो उठा। उसकी आँखे जैस फैल गयी । वह कुछ पहचान लेने का प्रयत्न कर रहा था। अब वह रुक नही सकता, बोलना ही चाहता था कि नवागन्तुक कुमार ने ललकार कर कहा--"बन्द करा निन्दनीय प्रदर्शन को ! देव-मन्दिर के नाम पर विलासिता के प्रचार को बन्द करो।" महाकाल-प्रतिमा के समीप बैठा हुआ ब्रह्मचारी तन कर पडा हो गया। उसने प्रतीक्षा को, अब जनता में से कोई प्रतिवाद करता है । किन्तु सहसा नर्तकी के आभूषणो की तरह भनभना कर वे मौन रह गये; ब्रह्मचारी ने कहा-~"देवाधिदेव की स्तुति करने से रुक जाना, सो भी किसी अपरिचित की आज्ञा पर, उचित नहीं । इरावती ! तुम चुप क्या हो ?" इरावती ने आरम्भ किया । कुमार का मुंह लाल हो उठा । उसने कडक कर कहा-"मौर्य साम्राज्य के कुमारामात्य बृहस्पतिमित्र का परिचय तुम नही जानते देवकुलिक !" "शान्त ! तुम तो भापा का भी साधारण ज्ञान नही रखते कुमार ! देवकुल मृतको का होता है देवता का नहो।" ब्रह्मचारी अपनी पूर्ण मनुष्यता मे तन कर खडा था। वृहस्पतिमित्र उसकी ओर देखने का साहस छोड चुका था, परन्तु उसने दिठाई से कहा-"वहाँ है उज्जयिनी का प्रादेशिक महामात्य । उसको मेरे आगमन की सूचना दो। और इस नर्तकी को पकड कर दुर्ग में ले जाओ।" वृहस्पतिमित्र का एक साथी दोड़ा हुआ बाहर गया। दूसरा सभा मण्डप में इरावती की धार चला । दर्शको में भगदड़ पड़ी। रग में भग हुआ। किन्तु युवा पथिक अब अपने को रोक न सका। वह भी मण्डप के बीच इरावती के समीप इरावती : ४४१