पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

"तुमने यह आपत्तिजनक कर्म विहार मे क्यो किया? यह किसकी शिक्षमाणा है ? वह सामने आवे।" स्थविर ने गभीरता से कहा। नीला इरावती से लिपट गई थी । भय और प्रेम स वह विह्वल थी । एक भिक्षुणी ने स्थविर क समीप आकर प्रणाम किया। उसने कहा-"कई महीना से वह नर्तकी प्रादेशिक महामात्य के आज्ञानुसार भिक्षुणी-मघ म रहती है । मेरे लिए क्या आज्ञा है ? ___स्थविर कुछ चिन्ता में पड़ गया । उसन धीर मे कहा- "वह स्वेच्छा से आई हुई नही है । तब तो राजकीय आज्ञा से भिक्षु-संघ भी परिचालित हागा। यह ता अनर्थ है।' ___"मैंने किया क्या ? मेरी समझ मे तो यही आया कि मैं देवमन्दिर से छीन कर बौद्ध-विहार म भेज दी गई है। यही पेट भरती हूँ, वस्त्र पहनती हूँ । यह दूसरी बात है कि मुझे ये सब अच्छे नही लगते, परन्तु इन सबका ऋण कैसे चुकाऊँगी । मेरे पास नृत्य को छोडकर और है ही क्या ? आज इतने स्त्री-पुरुषा के समारोह में मैं तो अपना कर्तव्य समझ कर ही नृत्य कर रही थी । यह भी अपराध है, तब तो मुझे छुट्टी दीजिए। __स्थविर विमूढ-सा खडा या। भिक्षु और भिक्षुणी सघ उस राजहसी-सी ग्रोवाभगिमा को आश्चय से देख रहा था । ठहर कर, तथागत का स्मरण करते हुए वृद्ध स्थविर न कहा--'भिक्षुणी-सघ की प्रवारणा स्थगित की जाती है। भिक्षुणीसघ अपन विहार में लौट जाय। उत्पला के पीछे-पीछे भिक्षुणियाँ भिक्षुणी-विहार मे चली, सवक पीछे इरावती थी । इरावती भिक्षुणी-विहार में जाकर भी अपनी काठरी मे नही गई । इस निस्तन्द्र निशीथ में वह भौचको-सी चुपचाप शिप्रा-तट के ऊंचे चक्रम पर जा खडी हुई । रानि का तृतीय पहर था और वह अपने जीवन के प्रथम प्रहर म थी। ससार नित्य यौवन और जरा वे चक्र में घूमता है, परन्तु मानवजीवन में तो एक ही बार यौवनान्माद का प्रवेश होता है, जिसम अनुवन्ध का प्रत्याख्यान और स्नह का आलिंगन भरा रहता है। वह भिक्षुणिया की सतप्ट चप्टा का आश्चय से देख रही थी। सब धीरे-धारे अपन स्थान पर जाकर साने लगी। हाँ, किसी-किसी को प्रवारणा स्थगित होन स इरावती पर झंझलाहट भी थी। कोई यह भी सोच रही थी कि इसे भिक्षुणी-सघ में से प्रवृजित करन पार किया जाय । इरावती के प्रति उनकी अन्यमनस्कता न यह जवमर न दिया कि कोई उससे यह पूछता कि 'क्या आज जागरण ही करेगी" शिप्रा के तट पर पाट की वृक्षश्रेणी तारक-खचित नीले अम्बर की किनारा इरावती ४७