पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

शपथ है, उसे बता कर मै विश्वासघात नही कर सकता।" फिर उसे खाँसी आने लगी, वह चुप हो गया। ___ 'तो मरो छाती पर लाद कर लिये जाओ।" कहती हुई झनक कर वह बाहर आ गई। वह सचमुच सुन्दरी थी, परन्तु दुर्वल अग जैसे अपने वाझ मे व्यस्त था । लडखडाती हुई वह द्वार पर बैठ गई। उसने खम्भे की आड मे बैठे हुए अग्निमित्र को नही देखा । भीतर से किसी ने करुण स्वर मे पुकारा--- "कालिन्दी, जल दो, प्यास लगी है।" कालिन्दी अपनी उंगलियो को चटकाती हुई वाली-"मरो।" अग्निमित्र से स्त्री की यह कठोरता नही देखी गई। वह बोला "शुभे ! क्या तुम्हारे पति बीमार हैं ?" "पति ! नही भद्र I मैं तो यहाँ की परिचारिका हूँ। मन्दिर के राग-भोग और परिष्कार का काम करती हूँ। यह पूजारी ..." अब उसने अग्निमित्र की ओर देखा । वह प्राणसार शरीर । वह कलापूर्ण मुन्दर दुर्बल मुख | लम्बा युवक । कदाचित् निस्संबल, निराश्रय | कालिन्दी के मन मे आया 'क्या इसका सहयोग प्राप्त हो सकता है ।' सहानुभूति से उसने पूछा-"क्या मैं आपकी कोई सेवा कर सकती हूँ ?" ___ "मुझे भी प्यास लगी है। पुजारी के समान मर ता न जाऊँगा, क्योकि सामने गगा वह रही हैं।" . "तब भी कुछ खाकर जल पीजिए । प्रसाद कुछ ले आऊँ ?'..कालिन्दी ने आत्मीयता दिखाते हुए कहा। ___"जैसी तुम्हारी इच्छा । किन्तु पहले पुजारी का जल पिला दो, सम्भवत. उससे तुम कुछ जानना या लेना चाहती हो न !"-अग्निमित्र ने भी मित्रता का आदेश दिया। ____ कालिन्दी भीतर गई । अग्निमित्र की बात मान कर उसने पुजारी को जल पिलाया और एक मोदक और जलपात्र लेकर वाहर आई । अग्निमित्र को प्रवास मे ऐसे बहुत-से अवसर मिले थे, उनका उसने सदुपयोग भी किया था। उसने मुस्कुराकर वह आतिथ्य ग्रहण किया। उसका शरीर और मस्तिष्क कुछ स्थिर हुआ। कालिन्दी घबरा रही थी; उसका सन्देश वढ रहा था । पुजारी बचेगा नही । उसे पूर्ण विश्वास था। उसने अग्निमित्र से कहा-"क्या आप पुजारी जी को चल कर देख लेगे?" "चलो" कह कर कालिन्दी के पीछे अग्निमित्र उस जीर्ण गृह में घसा । इरावती : ४५६