पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

____ "देखूगा' कहकर धनदत्त दूसरी आर मुडा, जिधर उसको बडी-सी द्वार गला थी । उस कुछ आभास मिला कि लाग उसस मिलने क लिए वही उसको तीक्षा कर रह है । धनदत उसी आर चला और ब्रह्मचारी को साथ लिय मणिराला भाण्डार-गृह की आर चलो। धनदत्त जब अपनी गद्देदार चौकी पर बैठा, तो उस दा स्त्रियाँ वही मची पर बैठी हुई दिखायी पडी। अवगुण्ठनवती थी। उनका सौंदर्य यद्यपि उस नील पावरण में छिपता न था, परन्तु उन्ह पहचान लेना असम्भव था। एक ने सुरील म्वर म कहा-"आप ही श्रेष्ठि धनदत्त है न?" ___"शुभे ! मेरा हो नाम है । कहिए क्या आज्ञा है ? ' धनदत्त न कहा । दूसरी चुपचाप प्रतिमा की तरह बैठी। "ठीक है, तो क्या आर्य | मुझे अपनी मुक्ताआ की मनपा दिखावेगे ?" "क्या नहीं, इन्द्रनील, वनमणि, पद्मराग इत्यादि भी दिखलाऊँ ?" "नही आर्य । मरी सखी के लिए उन चमकने वाली मणियो की आवश्यकता नहीं। मुझे तो स्निग्ध छायावाली मुक्ता चाहिए। मरी सखी, भीतर-बाहर उसी मुक्ता की तरह स्वच्छ और क्षण-भर की ज्योति-किरणो से मुक्ता है ।" "जैसा आप को रुचे श्रीमतो"- कहकर धनदत्त उठा और कुछ ही क्षणा म मोतियो की मजूपा लेकर आया। नीला वस्त्र-खण्ड विछाकर मुक्ता की ढेरी लगा दी गई.—गोल, पानीदार, वडे, छोटे, खुल और पिरोये हुए सभी तरह के मोती ! नयनाभिराम | शीतलस्पर्श मुक्ता वही लम्बी रमणी छॉटन लगी। सहसा धनदत्त वोल उठा-- "मैं समझ गया, आप एकावली और हाथो के लिए छोटी माला क लिए छांट रही हैं । तो इतना परिथम क्यो करती है। इन्हे देखिए"--कह कर मजूषा का दूसरा भाग उसने खोलकर एकावली और छोटी-बडी मालाआ की ढेरी लगा दी। रमणी ने कहा___"सचमुच मुक्ताओ का ऐसा अपूर्व सग्रह दुर्लभ है श्रेष्ठि । कुसुमपुरी का तुम्हारे ऊपर गर्व होना चाहिए।" "क्या कहती हैं आप 1 मै तो " धनदत्त भीतर ही भीतर फूल रहा था, परन्तु एक झलक उस सौन्दर्य को भी देखने की उसकी इच्छा थी। कदाचित अनजान में रमणी का अवगुण्ठन थोडा-सा हट गया। मरकत की हरियाली से धनदत्त की ऑखे तर हो गई। उससे भी अधिक गजदन्त-सी गौर भुजलता के द्वारा उसका ढंक लेना, धनदत्त के लिए कुतूहल का आकर्षण बन गया। वह टक ०६. प्रसाद वाङ्मय