पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५३१

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"तो ठीक है, रथ पर से मेरे अनुचर केयूरव को बुलवाइए। और इनना मूल्य बताकर उससे मूल्य ले लीजिए।" धनदत्त के कर्मचारी आदेश के अनुसार दोडे, परन्तु मेघो मे उनस भी तीन गात यो । पवन के सरटेि चलने लगे थे। बडी-वडो बंदे पढने लगी। असन्तुष्ट होकर उस युवक ने आकाश की ओर देखा । उसने कहा क्या पहूँ, कल दो स्त्रियां भगवान का दर्शन करने गई थी। उन लोगो सा रत्नावली देखकर, कलिंग के लोगा का इच्छा हुई कि ऐसी सुन्दर स्वर्ण-प्रतिमा के लिए, पाटलिपुत्र से ही रत्ल क्रय किये जायं। कलिंग राजकुल की एक महिना न उन लोगों से पूछा तो उन स्त्रिया न श्रेष्ठि धनदत का नाम बताया। इसीलिए आना पड़ा।" बादत्त के मन में एक कल्पना हई। उसने सोचा कदाचित् यही दोनो रही हा। पलिंगराज तक पहुँचकर अच्छा व्यापार किया जा सकता है। हो सकता है कि युवराजपुरुप यहोदय इन्ही स्त्रिया के आकर्षण म आ गये हो । उसने कहा "श्रीमान् ! कुसुमपुर की नागरिकाएँ ससार स निराली मनोवृत्ति रखती है। हम लोग तो उनके कलापूर्ण सकेतो पर उसके लिए मुरुचिपूर्ण अलकार और शृङ्गार प्रस्तुत करते रहते हैं। देखिएन | आज्ञा होने पर मैं ही राजमन्दिर म पता जाता, परन्तु इन्हे तो सब छोटना है, परखना है । यही आ गई।" युवक ने कुछ उत्तर न दिया। वह कोई दूसरी बात सोच रहा था। वपा का वेग वढ चला दीपक जलाये गये। कयूरक ने थैलियां उझल दी। कलिंग की स्वर्ण-मुद्राएँ उज्ज्वल आस्तरण पर बिखरी पड़ी रही। घनदत्त ने कहा-"यथेष्ट हैं।' उस सघन मेघ म काले कयूरक ने लाल आँखो से अलकारो को देखा । उन्हें सहेज कर मजूपा में रख लेन पर उसने कहा-- "दव । चलना चाहिए।' युवक का मन उलझ रहा था। उसने कहा-“पथ बड़ा दुर्गम है अधकारपूर्ण | थोडा ठहर कर चलना अच्छा होगा, कदाचित् बादल छंटन धनदत्त स्वर्ण-मुद्राओ को संभालने मे लगा था। उसने या केयूरक ने झुक कर धीरे से युवक के कान मे कहा, उसकी भाग ने मे लगा था। उसने ध्यान नहीं दिया। : कान में कहा, उसकी भाल-रेखाएं कुछ लिपत्र की एक रात्रि देखन का लोभ मैं नही सवरण कर सकता । तुम आवश्यक प्रबन्ध करो।" सोचता रहा । अव धनदत्त ने घूमकर कहा न हो ता आज रात्रि म मेरा आतिथ्य स्वी इरावतो ५११