पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/६४

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क्या तेरे वावूजी नही जानते । जानते हैं चाची, पर मैं क्या करूं ? अच्छा तू कहाँ है ?--मैं आऊंगी। लालाराम की बगीची म । चाची चली गई। ये लोग समाज-भवन की आर चल । कपडे मूख चुके थे । तारा उन्ह इकट्ठा कर रही थी। मगल बैठा हुआ तह लगा रहा था । बदली थी। मगल ने यहा---आज मूव जल वरसगा। क्यो ? बादल भीग रहे हैं, पवन रुका है। प्रेम का भी पूर्व रूप ऐसा ही हाता: तारा । मैं नहीं जानता था कि प्रेम-कादम्बिनी हमारे हृदयावाश म कवस अ थी और तुम्हारे सौन्दय का पवन उस पर घेरा डाले हुए था। ____ मैं जानती थी । जिस दिन परिचय की पुनरावृत्ति हुई, मरे खार आंमुआ क प्रेम-धन बन चुके थ । मन मतवाला हो गया था, परन्तु तुम्हारी सौम्यसयत चेप्टा ने रोक रखा था। मैं मन-ही-मन ममूसकर रह जाती। और इसीलिये मैंने तुम्हारी इच्छा पर अपने को चलन के लिए बाध्य पिया । मैं तुम्हारी आज्ञा मानकर तुम्हे अपन जीवन के साथ उलझान लगी थी। मैं नही जानता था तुम इतनी चतुर हो। अजगर के श्वास म खिचे हुए। मृग के समान मैं तुम्हारी इच्छा के भीतर निगल लिया गया। क्या तुम्हे इसका खेद है? तनिक भी नहीं प्यारी तारा, हम दोनो इसीलिए उत्पन्न हुए थ । अब मैं उचित समझता हूँ कि हम लाग समाज के प्रचलित नियमो म आवद्ध हो जायें, यद्यपि मेरी दृष्टि में सत्य प्रेम के सामने उसका कुछ मूल्य नही । जैसी तुम्हारी इच्छा। अभी ये लोग बाते कर रह थे कि उस दिन की चाची दिखलाई पडी । तारा न प्रसनता से उसका स्वागत किया। उसकी चादर उतारकर उस बैठाया। मगलदव बाहर चला गया। तारा, तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया-चाची ने कहा। वया चाची | जहां अपने परिचित होते हैं, वही तो लोग जाते हैं। परन्तु दुर्गम की अवस्था म उस जगह से अलग रहना चाहिए। तो क्या तुम लोग चाहती हो कि मैं यहां न रहे। नहीं-नही, भला एसा भी कोई कहगा। जीभ दवात हुए चाची ने कहा। ३४ प्रसाद वाइमय