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आज बडा समागह है। निरजन चौदा पार निजानकर रहा हैआरतो पूल, नगेर धूपदान विद्यपात्र और पचपान यादि मौज-धार नाक रिये जा रहे हैं। विभाग मवा पल धूप बत्ता और पूता की राशि एप पिच उसम सजा रहा है। घर सागर दाम-दामियो व्यस्त है। पागत वता पर निकार एक और बडी है। निरजन न किशागे ग नहा मिहागन नान प्रभा धुला नहीं है, किमा सकह दाकि उस स्वच्छ पर द। किशारी न युवती नी जार दयाराहा जाना उस धा दान युवती भीतर पहुँच गई। निरजन न उस दगा जार रिशारा ग पूछा- यह कौन है? किशारी न कहा यहा जा उस दिन रपा गइ है। निरजन न शिडरकर पहा---टहर जा, बाहर पल । फिर कुछ गध स किशोरी की आर दयकर कहा-~यह कौन है, वैसी है, दवगृह म जान याम्य है कि नही, समझ लिया है या या हो जिसको हुआ वह दिया । क्या, मैं उम तो नही जानती। यदि अछूत हा, अन्त्यज हा, जावित्र हा? तो क्या भगवान उस पवित्र नहा कर दग? आप ता कहत है कि भगवान् पतित-पावन है, फिर बडे-बडे पापियो का जब उदार को आशा है, तब इसका क्या वचित किया जाय ? कहत-बहत्त विशोरी न रहस्यभरी मुसकान चलाई। निरजन क्षुब्ध हो गया, परन्तु उसन कहा-अच्छा शास्त्रार्थ रहन दो। इस कहो कि बाहर चली जाय ।-निरजन को धम-हठ उत्तजित हा उठी था । किशोरी न कुछ कहा नही, पर युवती दवगृह के वाहर चलो गई, और वह एक कोन म बैठवर सिसक्न लगी। सब जपन काय में व्यस्त थ। दुखिया के रान ५४ प्रसाद वाङ्मय