पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/८७

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मगल न विजय स कहा--तुमका गुरुजना का अपमान नही करना चाहिए। मैंन बहुत स्वाधीन विचारों को काम में न जान दी चप्टा की है, उदार समाजा म घूमा-फिरा है, पर समाज के शासन-प्रश्न पर और अमुविधाआ प सब एक ही-स दोख पडे । मैं समाज में बहुत दिना तक रहा उसस स्वतत्र होकर भी रहा, पर मभी जगह सकीर्णता हे, शासन के लिए, क्योकि काम चलाना पड़ता है न । ममाज में एक स उनत और एक-सी मनावृत्ति वाल मनुष्य नही सवका सतुष्ट और धमशील बनान क लिए धार्मिक सस्थाएं कुछ न कुछ उपाय निकाना करती है। पर हिन्दुआ क पास निषेध के अतिरिक्त और भी कुछ है यह मत करा वह मत करो, पाप है। जिसका पल यह हुआ है कि हिन्दुला को पाप का छाडकर पुण्य कही दिखलाई ही नहीं पडता । विजय न कहा । विजय । प्रत्येक सस्थाआ का कुछ उद्देश्य है और उस सफल करन क लिए कुछ नियम बनाय जात है। नियम प्राय निपेवात्मक हात है, क्याकि मानव अपन का सब कुछ करन का अधिकारी समझता ह । कुल याड-स सुकम हे आर पाप अधिक है, जो निषेध क बिना नहीं रुक सक्त । दया, हम किसी भी धार्मिक सस्या स अपना मभ्यन्व जाड , ता हम उसकी कुछ परम्पराओं का अनुकरण करना ही पड़ेगा। मूर्ति-पूजा के विराधिया न भी अपने-अपन हिन्दू सम्प्रदाया में धम भावना के कन्द्र स्वरूप पाई-न कोई वर्म-चिह्न रख छोडा है। जिन्ह व चूमत है सम्मान करत है, और जिनक सामन सिर झुकात है । हिन्दुआ न मा अपनी भावना क जनुसार जन-साधारण के हृदय म दवभाव भरने का मार्ग चलाया है । उन्हाने मानव जीवन म क्रम-विवास का अध्ययन क्यिा है । वे यह नहीं मानते कि हाथ-पैर, मुंह-आख और कान समान हान से हृदय भी एक-सा होगा। और विजय । धम ता हृदय स आचरित हाता है न, इसीलिए अधिकार तो फिर उसम उच्च विचारवाल लागा का स्थान नहीं, क्याकि समता और विषमता का द्वन्द्व उसक मूल म वर्तमान है। उनसे ता अच्छा है, जो बाहर स माम्य की घोषणा करव भा भीतर स घार विभिन्न मत क है और वह भी स्वार्थ क कारण | हिन्दू समाज तुमको मूर्ति-पूजा करन क लिए बाध्य नही करता, फिर तुमको व्यग करन का काई अधिकार नहीं । तुम अपन को उपयुक्त समयत हो, तो उसस उच्चतर उपासना प्रणाली में सम्मिवित हो जाना। दखा, आज तुमन घर म अपन इस काण्ड के द्वारा भयानक हलचल मचा दी है। मारा उत्सव विगड गया है। ककाल २७