सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

एक उपजाति उस कान्यकुब्ज हलवाई वर्ग में उत्पन्न हुए जिसमें पुनर्भू प्रथा प्रचलित रही। कलकत्ता प्रवास में कुछ जातीय प्रसंग भी उभरे और उच्च वर्ण वाले महानुभाव ने किसी से इस पुनर्भू प्रसंग की व्यंग्यात्मक चर्चा की––उन्होंने आकर कहा––'प्रसादजी अमुक ऐसा कहते थे'। एक सामान्य स्मिति से उन्होंने कहा कि वे जाबालि, वसिष्ठ और कृष्ण द्वैपायन जैसे महर्षियों की कथा भूल गए? यह बात यद्यपि वहीं समाप्त हो गई : किन्तु कहावत है––कान्यकुब्ज और करैत सांप––भूलते नहीं। यदि ध्रुवस्वामिनी में वैसी कोई वस्तुता भी हो तो विस्मय नहीं। यद्यपि, यह एक संयोग की बात थी कि १९३२ की जनवरी में कलकत्ता प्रवास से उनके लौटने के बाद ही ध्रुवस्वामिनी की रचना हुई। प्रकाशन के बाद उनके जीवनकाल में ही इसकी भी वैसी रंगमंच-प्रस्तुतियाँ हुईं––जैसी चन्द्रगुप्त-स्कन्दगुप्त की।

ऐतिहासिक नाटकों की शृंखला की अन्तिम कड़ी––'अग्निमित्र' (अपरिसमाप्त) है जो इरावती उपन्यास में विधान्तरित हुआ। बारह और ऐतिहासिक नाटकों की लेखकीय योजना रही जिसका काल विस्तार शुंगकाल से मध्यकाल तक होता और सबके बाद उस महानाटक इन्द्र को लिखने की बात मन में रही जिसका सामग्री-संचयन प्रायः १९२२-२३ से ही वे कर रहे थे उसी के परिणाम रूप उनके दो निबन्ध हमें प्राप्त हैं––'आर्यावर्त्त और उसका प्रथम सम्राट इन्द्र' जो कोशोत्सव स्मारक संग्रह में सं॰ १९८५ में प्रकाशित हुआ दूसरा 'दाशराज्ञ युद्ध' जो गंगा के वेदांक में छपा। मेरु पर भी एक लेख त्याग भूमि छपा किन्तु वह इन्ही के अन्तर्भुक्त है। ऊपर लिखी बारह नाटकों की योजना बदल गई और नाटकों का स्थान उपन्यासों ने लिया, उसकी पहली कृति अधूरी इरावती के रूप में है। इस सन्दर्भ में 'अग्निमित्र' की 'अर्चिका' में विस्तार से लिखा गया है अत: यहाँ दुहराना आवश्यक नहीं।

'ध्रुवस्वामिनी' के प्रायः तीन वर्ष बाद 'अग्निमित्र' लिखा जाने लगा। बाहु पीड़ा (Writer's Cramp) के कारण स्वयं न लिख कर वे बोल कर इसे लिखाने लगे। यह बात १९३५ के ग्रीष्म काल की है। इस तीन वर्ष के अन्तराल में बारह नाटकों की योजना पर मनन सामग्री-अवलोकन होते रहे। उसी संभावित शृंखला का यह पहला नाटक अग्निमित्र आरंभ ही हुआ था कि योजना बदल गई और नाटकों के स्थान पर उपन्यास लिखना निश्चित हुआ। और, यह 'अग्निमित्र' तभी से विधान्तरित हो इरावती उपन्यास में परिणत होने लगा। किन्तु, उस बारह अंकों में रचित होने वाले महा नाटक इन्द्र के अनुभूति परक अनुभावन अभिव्यक्ति की सीमा को स्पर्श करने लगे थे। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र की मार्फत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से वे ग्रन्थ मँगा लिया करते थे। जब एक दिन उन्होंने वृहद्देवता लाने को कहा तब केशवजी ने पूछा 'अब इसकी क्या आवश्यकता कामायनी तो पूरी हो

पुरोवाक् : XIII