पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५८

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विकटघोष-इस अभिनय का काम नहीं। चलो, वह देखो; युद्ध समीप आता जा रहा है । अरे, लो वे इधर ही आ रहे है। [विकटघोष सुरमा को लेकर जाता है । एक ओर से देवगुप्त, दूसरी ओर से राज्यवर्द्धन का प्रवेश] राज्यवर्द्धन--दुष्ट मालव ! अब भागने से काम न चलेगा-सावधान । तेरी नीचता का अन्त समीप है। देवगुप्त--तो मैं प्रस्तुत हूँ। [युद्ध-देवगुप्त की मृत्यु] [यवनिका तृतीय अंक प्रथम दृश्य [पथ में] सुरमा-तब ? विकटघोष--तुम्हारी इच्छा सुरमा ! तुम्हारी शीघ्रता ने दो जीवन नष्ट किये--मैं दस्यु हुआ और तुम एक कामुक की वासना पूर्ण करने वाली वेश्या । सुरमा-और तुम राज्यश्री को कहाँ छिपाये हो ? विकटघोष-वह मै नही जानता। मेरे साथी-दूसरे दस्यु-उसे ले भागे । सुरमा--क्यों, क्या तुम्हारे विलम्ब का कारण राज्यश्री का रूप न था ? विकटघोष -पर उमकी प्यास तुम्ही ने जगा दी थी। मैं विचारता था कि किधर बढ् ? रूप और विभव दोनो के प्रभाव ने मुझे अभिभूत तो कर दिया था, किन्तु मैं तुम्हे भूला न था, मुरमा ! सुरमा--तो अब हम तुम एकत्र मंमार की यात्रा कर सकते है । विचार लो ! विकटघोप--पतन की नरम भीमा तक चले, सुरमा ! बीच मे रुकने की आवश्यकता नही। संमार ने हम लोगो की ओर आंख उठाकर नही देखा और देखेगा भी नहीं तब उमकी उपेक्षा ही करूंगा। यदि कुछ ऐमा कर सकूँ कि वह मुझे देखे, मेरी खोज करे, तब तो मही । सुरमा--यही तो मै चाहती थी। तम कुछ ऐसा करो, और मै तुम्हारी बनूं । विकटघोष-तो चलो, गोड शिविर में चले। सुरमा-वहाँ क्या करना होगा ! १४२ . प्रसाद वाङ्मय