पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पहला दस्यु-तब मैं तुम्हें किसी के हाथ बेच दूंगा । क्योंजी, यही ठीक रहा। दूसरा दस्यु--और किया क्या जायगा ? राज्यश्री -तब अच्छा हो कि मेरे जीवन का अन्त हो जाय ! भगवान तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो! [नेपथ्य से गान] अब भी चेत ले तू नीच दुःख-परितापित धरा को स्नेह-जल से सींच शीघ्र तृष्णा-पाश से नर, कण्ठ को निज खींच स्नान कर करुणा-सरोवर, धुले तेरा कोच पहला दस्यु- यह क्या ? दूसरा दस्यु हम लोग क्या कर रहे हैं ? [विवाकरमित्र का प्रवेश]] दिवाकरमित्र-क्षणिक संसार ! इस महाशून्य में तेरा इन्द्रजाल किसे नहीं प्रान्त करता ! मैंने बहुत दिनों तक शास्त्रों का अध्ययन किया, पण्डितों को परास्त किया, तर्क से कितनी का मुंह बन्द कर दिया, परन्तु क्या मन को शान्ति मिली ? नहीं; तब ? भगवान् की करुणा का अवलम्ब शेष है। करुणे ! इस दुःखपूर्ण धरती को अपनी कोड़ में चिरकालिक शान्ति दे, विश्राम दे। (देखकर)-अरे, यह वनलक्ष्मी- सी कौन है ? विषाद की यह कालिमा क्यों ? और तुम लोग कौन हो, भाई ? दस्यु-हम लोग दस्यु हैं ! दिवाकरमित्र-और तुम देवी? राज्यश्रो -जब विपत्ति हो, जब दुर्दशा की मलिन छाया पड़ रही हो, तब अपने उज्ज्वल कुल का नाम बताना, उसका अपमान करना है ! देव, मैं एक विपन्न अनाथा हूँ। जीवन का अन्त चाहती हूँ-मृत्यु चाहती हूँ। दिवाकरमित्र-यह पाप ! देवि, आत्मदाह या स्वेच्छा से मरने के लिये प्रस्तुत होना-भगवान की अवज्ञा है। जिस प्रकार सुख-दुःख उसके दान है-उन्हें मनुष्य झेलता है, उसी प्रकार प्राण भी उसी की धरोहर है। तुम अधीर न हो। क्यों भाई, तुम प्राण चाहते हो या धन ? पहला-मुझे तो धन चाहिये । दिवाकरमित्र -तो चलो, मेरे कुटीर पर जो कुछ हो सब ले लो। दूसरा-किन्तु, मुझे तो अपनी शान्ति दीजिये ! देव, मैं इस कर्म से अत्यन्त व्यथित हो गया हूँ। अब अपने पद-रज की विभूति दीजिये । दिवाकरमित्र-(हंस कर) अच्छा वैसा ही होगा; सब लोग आश्रम पर । रेवा-तट पर कुमार हर्षवर्द्धन और पुलकेशिन चालुक्य का युद्ध चल रहा है। १० राज्यश्री: १४५