पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६३

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पुलकेशिन् -उदार महापुरुष । मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरे शरीर पर हूणों का अहेर करने वाले इन हाथों से प्रहार हो और मैं उसे झेलूं तो। हर्षवर्द्धन- मैं इस वीरोन्माद, इस उत्साह का आदर करता है। चालुक्य ! मेरा मन व्यथित हो उठा है। मैंने सुना है कि मेरी अनाया दुखिया बहन कही इसी विन्ध्यपाद मे है । मैं अभी जाना चाहता हूँ। पुलकेशिन् -क्या महारानी राज्यश्री अभी जीवित है ? हर्षवर्द्धन-हाँ पुलकेशिन् ! मुझे अभी-अभी चर ने यह सन्देश दिया है। दक्षिणा-पथेश्वर, मैं अभी विदा चाहता हूँ। पुलकेशिन्- महावीर, जैसी आप की इच्छा ! मै आपसे सन्धि, युद्ध, सब में अपने को धन्य समझता हूँ। हर्षवर्द्धन-(हाथ फैलाकर)-तो आओ भाई ! [दोनों गले से मिलते हैं] [दृश्यान्तर] चतुर्थ दृश्य [सरयू का तट-अशोक-कानन। विकटघोष अपने साथी डाकुओं के साथ बैठा हुआ। सामने देवी उन तारा की मूर्ति] विकटघोष-सुरमा, तुम्हारे हाथो मे आकर यह कड़वी मदिरा कितनी मीठी, कितनी हल्की हो जाती है-पिलाओ और प्रेयसी ! सुरमा-लो-(पिलाती है)। विकटघोष-अभी तक सब नही आये ! वह चीनी यात्रो अवश्य बड़ा धनी होगा, सुरमा | तब तक तुम कुछ गाओ न ! सुरमा-गाती है जब प्रीति नहीं मन में कुछ भी तब क्यों फिर बात बनाने लगे। सब रीति प्रतीति उठी पिछली फिर भी हँसने मुसकाने लगे। मुख देख सभी सुख खो दिया था दुख मोल इपी सुख को लिया था। सर्वस्व ही तो हमने दिया था तुम देखने को तरसाने लगे। राज्यश्री : १४७