चतुर्थ दृश्य [रमन्याटवी में-विशाख का गृह, चन्द्रलेखा और विशाख] विशाख -अच्छा तो प्रिये ! अब मैं जाता हूँ। शीघ्र ही लौटकर यह मुखचन्द्र देखूगा। चन्द्रलेखा-ना, ना-मैं न जाने दूंगी, तुम्हे कही जाने की क्या आवश्यकता है ? मैं कैसे रहूंगी? विशाख-मुझे कमी तो किसी बात की नहीं है। फिर भी उद्योगहीन मनुष्य शिथिल हो जाता है। उसका चित्त आलसी हो जाता है, इसलिये कुछ थोड़ा भी इधर-उधर कर आऊँगा तो मन भी बहल जायगा और कुछ लाभ भी हो जायगा। चन्द्रलेखा -क्या इतने ही दिनों में तुम्हारा मन ऊब गया ? क्या मुझसे घृणा हो गयी? लाभ; यह तो केवल बहाना है । हा ! विशाख - बस इसी से तो मैं कुछ कहता नही था। क्या मैं भी तुम्हारी तरह बैठा रहूँ? पर्याप्त सुख तुम्हें देना क्या मेरा कर्तव्य नही है ? सुख क्या बिना सम्पत्ति के हो सकता है ? तुम्हे मैं क्या समझाऊँ ? चन्द्रलेखा-बस-बस रहने दो। मैं तो तुम्हें पाकर अपने सुख मे कोई भी कमी नहीं देखती है- सुख की सीमा नही सृष्टि में नित्य नये ये बनते हैं । आवश्यकता जितनी बढ़ जावे उतने रूप बदलते हैं। सच्चा सुख, सन्तोष जिसे है उसे विश्व में मिलता है। पूर्ण काम के मानस में बस शान्ति-सरोरुह खिलता है। मुझे तो जीवनधन ! तुम्हें पा जाने पर और किसी की आवश्यकता नहीं। पर तुम्हारे मन में न जाने कितनी अभिलाषायें है। विशाख-संसार उन्नति का साथी है, क्या मुझे उससे अलग रहना चाहिये ? क्या इसमें तुम मेरे प्रणय की कमी समझती हो ? चन्द्रलेखा-मैं क्या जानूं कि संमार क्या चाहता है। मैं तो केवल तुम्हें चाहती हूँ ! मेरे संकीर्ण हृदय में तो इतना स्थान नही कि संसार की बातें आ जायें किन्तु- अकेली छोड़कर जाने न दूंगी। प्रणय को तोड़कर जाने न दूंगी। तुम्हें इस गेह से जाने न दूंगी। हृदय को देह से जाने न दूंगी। विशाख-तो मुझे क्या करोगी? १८४ :प्रसाद वाङ्मय
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