पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०३

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पंचम दृश्य [एक बौद्ध संन्यासी और नागरिक] भिक्षु-अमिताभ यह कैसा जनपद है जहाँ भिक्षुओं को देख कर कोई वन्दना भी नहीं करता, भिक्षा की तो कौन कहे ? (नागरिक को देखकर) उपासक ! धर्मलाभ हो। नागरिक-मुझे तुम्हारा धर्म नही नाहिये। दया कीजिये, यहाँ से किसी और स्थान को पधारिये। भिक्षु-क्यो यहाँ पर क्या भगवान की कृपा नही है ? क्या यह उनके करुणाराज्य के बाहर है ? नागरिक-मुझे इन चाटूक्तियों के उत्तर देने का अवकाश नही। भस्मावशेष विहार और भग्नस्तूपों से तुम्हे इसका उत्तर मिलेगा। तुम लोगों को गृहस्थ मोटा बना कर अब अपना अपकार न करावेगे । बढ़ो यहाँ से । (जाता है) भितु-- 4 भी क्या अधर्म हो जाता है ? पुण्य क्या पाप मे परिवर्तित होता है ? भगवन, यह तुम्हारे धर्मराज की कैसी व्यवस्था है ? क्या धर्म में भी प्रतिघात होता ? उमका भी पतन और उत्थान है ? [महापिंगल का प्रवेश] महापिगल -एक दिन भीख न मिली और धर्म पर पानी फिर गया, सारी करुणा और विश्वमैत्री क हो गयी, क्या श्रमणजी ? भिक्षु-उपासक ! वान तो तुम यथार्थ कह रहे हो किन्तु तथागत के धर्म में ऐसी शिथिलता क्यों? महापिंगल --अजी धर्म जब व्यापार हो गया और उसका कारबार चलने लगा फिर तो उसमे हानि और लाभ दोनो होगा। इसमें चिन्ता क्या है। तुम्हे भोजन की आवश्यकता हो तो चलो मेरे साथ । किन्तु, थोड़ा काम भी करना होगा। भिक्षु और यदि मै काम न करूं तो? महापिंगल - भोजन न मिलेगा। मेरे ही यहां नही, प्रत्युत इस देश-भर में। शीघ्र बोलो; स्वीकार है ? भिक्षु क्या करना होगा ? महापिगल-जितने टूटे हुए विहार है उनमे से जिसके चाहो स्थविर बन - जाओ। भिक्षु-परिहास न करो, टूटे विहारों के लिए कोई लंगड़ा भिक्षु खोज लो। विशाख: १८७