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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४४

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. गौतम-कहो, मगध के क्या समाचार हैं ? मगध-नरेश सकुशल तो है ? जीवक तथागत ! आपसे क्या छिपा है ? मगध-राजकुल में बड़ी अशान्ति है। वानप्रस्थ-आश्रम मे भी महाराज बिम्बिसार को चन नही है। गौतम-जीवक! चंचल चन्द्र सूर्य है चंचल, चपल सभी ग्रह तारा हैं । चंचल अनिल, अनल, जल, थल, सब चंचल जैसे पारा है। जगत प्रगति से अपने चंचल, मन की चचल लीला है। प्रति क्षण प्रकृति चचला जैसी यह परिवर्तनशीला है। अणु-परमाणु, दुख-सुख चंचल, क्षणिक सभी सुख साधन है। दृश्य सकल नश्वर-परिणामी, किसको दुख, किसको धन है ? क्षणिक सुखो को स्थायी कहना दुख-मूल यह भूल महा। चचल मानव ! क्यो भूला तू, इस सीठी मे सार कहाँ ? जीवक -सत्य है प्रभु ! गौतम -कल्याण हो। सत्य की रक्षा करने से, वही सुरक्षित कर लेता है। जीवक ! निर्भय होकर पवित्र कर्तव्य करो। [गौतम का सघ सहित प्रस्थान, विदूषक वसन्तक का प्रवेश] वसन्तक- अहा वैद्यराज ! नमस्कार ! बस एक रेचक और थोडा-सा वस्तिकर्म-इसके बाद गर्मी ठण्ढी ! अभी आप हमारे नमस्कार का भी उत्तर देने के लिये मुख न खोलिये । पहले रेचक प्रदान कीजिये। निदान मे समय नष्ट न कीजिये। जीवक-(स्वगत)-यह विदूषक इस समय कहाँ से आ गया ! भगवान्, किसी तरह हटे। वसन्तक-क्या आप निदान कर रहे है ? अजी अजीर्ण है, अजीर्ण। पाचक देना हो दो, नही तो हम अच्छी तरह जानते है कि वैद्य लोग अपने मतलब से रेचन तो अवश्य ही देगे। अच्छा, हाँ कहो तो, बुद्धि के अजीर्ण मे तो रेचन ही गुणकारी होगा? सुनो जी, मिथ्या आहार से पेट का अजीर्ण होता है और मिथ्या विहार से बुद्धि का, किन्तु महर्षि अग्निवेश ने कहा है कि इममे रेचन ही गुणकारी होता है । (हंसता है) जीवक-तुम दूसरे की तो कुछ सुनोगे नही ? वसन्तक-सुना है कि धन्वन्तरि के पास एक ऐमी पुड़िया थी कि बुढ़िया युवती हो जाय और दरिद्रता का केचुल छोड़कर मणिमयी बन जावे ! मया तुम्हारे पास भी--उहूँ--नही है ? तुम क्या जानो। जीवक--तुम्हारा तात्पर्य क्या है ? हम कुछ न समझ सके । - २२४: प्रसाद वाङ्मय