शैलेन्द्र -तब देर क्या ! कही कोई आ जायगा ! फिर-(श्यामा का गला घोंटता है वह क्रन्दन करके शिथिल हो जाती है) बस चलें, पर नही, धन की आवश्यकता है (आभूषण उतारकर ले जाता है) [गौतम बुद्ध और आनन्दं का प्रवेश] आमन्द-भगवान् । देवदत्त ने तो अब बड़े उपद्रव मचाये। तथागत को कलंकित और अपमानित करने के लिए उसने कौन-से उपाय नहीं किये ? उसे इसका फल मिलना चाहिये। गौतम-यह मेरा काम नही-वेदना और संज्ञाओ का दु.ख अनुभव करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। हमे अपना कर्तव्य करना चाहिये, दूसरों के मलिन कर्मों को विचारने से भी चित्त पर मलिन छाया पडती है। आनन्द-देखिये, अभी चिच्चा माणविका को लेकर उसने कितना बड़ा अपवाद लगाना चाहा था-केवल आपकी मर्यादा गिरा देने की इच्छा से । गौतम-किन्तु सत्य सूर्य को कही कोई चलनी से ढक लेगा? इस क्षणिक प्रवाह मे सब विलीन हो जायेंगे। मुझे अकार्य करने से क्या लाभ ! चिच्चा को ही देखा, अब वह बात खुल गयी कि उसे गर्भ नहीं है, वह केवल मुझे अपवाद लगाना चाहती थी। तभी तो उसकी कैसी दुर्गति हुई। शुद्ध बुद्धि की प्रेरणा से सत्कर्म करते रहना चाहिये। दूमरो की ओर उदासीन हो जाना ही शत्रुता की पराकाष्ठा है । आनन्द, दूसरो का अपकार मोचने से अपना दुदय भी कलुषित होता है । आनन्द-यथार्थ है प्रभु (श्यामा के शव को देखकर) अरे यह क्या ! चलिये गुरुदेव ! यहाँ से शीघ्र हट चलिये । देखिए, अभी यहाँ कोई काण्ड घटित हुआ है। गौतम-अरे, यह तो कोई स्त्री है. उठाओ आनन्द ! इसे सहायता की आवश्यकता है। आनन्द-तथागत आपके प्रतिद्वन्द्वी इससे बडा लाभ उठावेगे। यह मृतक स्त्री विहार मे ले जाकर क्या आप कलकित होना चाहते है । गौतम-क्या करुणा का आदेश कलंक के डर से भूल जाओगे? यदि हम लोगों की सेवा से वह कष्ट से मुक्त हो गयी तब ? और मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि यह मरी नही है। आनन्द, विलम्ब न करो। यदि यह यो ही पडी रही, तब भी तो विहार के पीछे ही है । उस अपवाद से हम लोग कहाँ बचेगे ? आनन्द-प्रभु, जैसी आज्ञा। [श्यामा को उठ. र ले जाते हैं] [शैलेन्द्र का प्रवेश] शैलेन्द्र-उसे कोई उठा ले गया। चलो मैं भी उसके घर मे जो कुछ पा ले अजातशत्रु : २५५
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