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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८६

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तृतीय दृश्य [कानन का प्रान्त] विरुद्धक-आद्र-हृदय में करुण-कल्पना के समान आकाश में कादम्बिनी घिरी आ रही है ! पवन के उन्मत्त आलिंगन से तरुराजि सिहर उठती है। झुलसी हुई कामनायें मन में अंकुिरित हो रही हैं । क्यों ? जलदागमन से ? आह ! अलका की किस विकल विरहिणी की पलकों का ले अवलम्ब, सुखी सो रहे थे इतने दिन, कैसे हे नीरद निकुरम्ब ! बरस पड़े क्यों आज अचानक सरमिज कानन का संकोच, अरे जलद में भी यह ज्वाला ! झुके हुए क्यों किसका सोच ? किस निष्ठुर ठण्ढे हृत्तल में जमे रहे तुम बर्फ समान ? पिघल रहे हो किस गर्मी से ! हे करुणा के जीवन-प्राण ? चपला की व्याकुलता लेकर चातक का ले करुण विलाप, तारा आंसू पोंछ गगन के, रोते हो किस दुख से आप? किस मानस-निधि में न बुझा था बड़वानल जिससे बन भाप प्रणय-प्रभाकर-कर से चढ़कर इस अनन्त का करते माप, क्यों जुगनू का दीप जला, है पथ में पुष्प और आलोक ? किस समाधि पर बरसे आंसू किसका है यह शीतल शोक । थके प्रवासी बनजारों-से लौटे हो मन्थर गति से; किस अतीत की प्रणय-पिपामा जगती चपला-सी स्मृति से ? मल्लिका--(प्रवेश करके) तुम्हें सुखी देखकर मैं सन्तुष्ट हुई कुमार ! विरुद्धक-मल्लिका ! मैं तो आज टहलता-टहलता कुटी से इतनी दूर चला आया हूँ । अब तो मैं सबल हो गया, तुम्हारी इस सेवा से मैं जीवन भर उऋण नहीं मल्लिका-अच्छा किया। तुम्हें स्वस्थ देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई । अब तुम अपनी राजधानी को लौट जा सकते हो। विरुद्धक-मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है मेरे हृदय में बड़ी खलबली है । यह तो तुम्हें विदित था कि सेनापति बन्धुल को मैंने ही मारा है; और उसी की तुमने सेवा की ! इससे क्या मैं समझू । क्या मेरी शंका निर्मूल नहीं है ? कह दो मल्लिका! मल्लिका-विरुद्धक ! तुम उसका मनमाना अर्थ लगाने का भ्रम मत करो। तुमने समझा होगा कि मल्लिका का हृदय कुछ विलचित है, छिः ! तुम राजकुमार हो न, इसीलिये । अच्छी बात क्या तुम्हारे मस्तिष्क में कभी आयी ही नहीं; मल्लिका उस मिट्टी की नहीं है, जिसकी तुम समझते हो। २६६ :प्रसाद वाङ्मय