पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८८

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श्यामा-नहीं देवि ! अब मैं आपकी सेवा करूंगी, राजसुख मैं बहुत भोग चुकी हूँ। अब मुझे राजकुमार विरुखक का सिंहासन भी अभीष्ट नहीं है, मैं तो शैलेन्द्र डाकू को चाहती थी। विरुद्धक-श्यामा, अब में सब तरह से प्रस्तुत हूँ, और क्षमा भी मांगता हूँ। श्यामा-अब तुम्हे तुम्हारा हृदय अभिशाप देगा, यदि मै क्षमा भी कर दूं। किन्तु नही, विरुद्धक ! अभी मुझमें उतनी सहनशीलता नही है । मल्लिका-राजकुमार । जाओ, कोसल लौट जाओ; और यदि तुम्हे अपने पिता के पास जाने में डर लगता हो, तो मैं तुम्हारी ओर से क्षमा मांगूंगी। मुझे विश्वास है कि महाराज मेरी बात मानेगे। विरुद्धक-उदारता की मूर्ति ! मै किस तरह तुमसे, तुम्हारी कृपा अपने प्राण बचाऊँ । देवि । एसे भी जीव इसी संसार मे है, तभी तो यह भ्रम-पूर्ण संसार ठहरा है (पैरों पर गिरता है)-देवि ! अधम का अपराध क्षमा करो। मल्लिका-उठो राजकुमार | चलो, मै भी श्रावस्ती चलती हूँ। महाराज प्रसेनजित् से तुम्हारे अपराधो को क्षमा करा दूंगी, फिर इस कोसल को छोडकर चली जाऊँगी। श्यामा तब तक तुम इस कुटीर पर रहो, मै आती हूँ। (दोनों जाते हैं) श्यामा-जैसी आज्ञा-(स्वगत)-जिसे काल्पनिक देवत्व कहते है-वही तो सम्पूर्ण मनुष्यता है । मागन्धी, धिक्कार है तुझे ! (गाती है) स्वर्ग है नही दूसरा और । सज्जन हृदय परम करुणामय यही एक है ठौर ॥ सुधा-सलिल से मानस, जिसका पूरित प्रेम-विभोर । नित्य कुसुममय कल्पद्रुम की छाया है इस ओर ॥ स्वर्ग है। दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [प्रकोष्ठ में दीर्घकारायण और रानी शक्तिमती] शक्तिमती-बाजिरा सपनि कन्या है, मेरा तो कुछ वश नही, और तुम जानते हो कि मैं इस समय कोसल की कंकडी से भी गयी-बीती हूँ। किन्तु कोसल के सेनापति कारायण का अपमान करे ऐसा तो"। दीर्घकारायण-रानी! हम इधर से भी गये और उधर मे भी गये ! विरुखक को भी मुंह दिखाने नायक न रहे और बाजिरा भी न मिली ! शक्तिमती-तुम्हारी मूर्खता | जब मगध के युद्ध मे मैने तुम्हे समेत किया 1 २६८: प्रसाद वाङ्मय