पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२९

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सप्तम दृश्य [कानन में धनुष पर बाण चढ़ाये हुए जनमेजय] जनमेजय-कहां गया ? अभी तो इधर ही आया था ? [भद्रक का प्रवेश भद्रक-जय हो देव ; मृग अभी इधर नही आया, उधर ही गया। जनमेजय-भद्रक, तुम बता सकते हो कि किस ओर गया ? भद्रक-प्रभो, तनिक सावधान हो जाइये, अभी पता चल जाता है। [दोनों चुपचाप देखते और मुनते है। जनमेजय-(धीरे से) अजी देखो, वह उम झाड़ी मे छिपा हुआ-सा जान पड़ता है। भद्रक-नहीं पृथ्वीनाथ, ऐसी जगह नहीं छिपते । जनमेजय-चुप रहो । निकल जायगा । (बाण चलाता है। झाड़ो में क्रन्दन और धमाका) जनमेजय यह क्या ? भद्रक -क्षमा हो देव, मनुष्य का-सा स्वर सुनाई देता है । [दोनों झपटे हुये जाते है और घायल ऋषि को उठा लाते हैं] जनमेजय-अनर्थ हो गया ! हाय रे भाग्ग ! आये थे मृगया खेल कर हृदय को बहलाने, यहां हो गया ब्रह्म-हत्या का महापातक ! तपोनिधे ! मेरा अपराध कैसे क्षमा होगा ? आप कौन है ? आपकी अन्तिम आज्ञा क्या है ? ऋपि-तुम आर्यावर्त के मम्राट हो । (ठहर कर) अच्छा शान्त होकर मुनो। अदृष्ट की लिपि ही सब कुछ कराती है। आह ! अब मैं 7ी वच मक्ता। मैं पायावर वंश का जरत्कारु हूँ। ओह ! बड़ी वेदना है ! तुम ('ग कोमल मृगों पर इतने तीखे बाण चलाते हो ! जनमेजय, मैं तुमको क्षमा करता हूँ। किन्तु कर्मफल तो स्वयं समीप आते है, उनसे भाग कर कोई बच नही सकता। मेरा पुत्र आस्तीक तुम्हारी समस्त ज्वालाओं को शान्त करेगा । स्मरण रखना, मनुष्य प्रकृति का अनुचर और नियति का दास है। -आह ! जल- [भद्रक जाकर जल लाता है, जनमेजय जल पिलाता है] जनमेजय-तपोधन, मेरा हृदय मुझे धिक्कार की ज्वाला मे भस्म कर रहा है। मैं ब्रह्म-हत्या का अपराधी हुआ हूँ ! भगवन्, क्षमा करें ! जरत्कारु-राजन् ! क्षमा ! (छटपटा कर मर जाता है) [यवनिका] जनमेजय का नाग यश: ३०९