पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२३

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कामना-कुछ नहीं, अपना सब कुछ देकर ठोकरें खाना ! उपहास का लक्ष्य बन जाना! विलास-इस समय युद्ध के सिवा और कुछ नहीं ! फिर किसी दिन उपालम्भ सुन लूंगा। (वेग से जाता है) [लीला और लालसा के साथ मद्यप विनोद का प्रवेश] विनोद-रानी, सब पागल है। कामना-एक तुमको छोडकर विनोद ! विनोद-मैं तो कहता हूं, दस घड़े रक्त के न बहाकर यदि एक पात्र मदिरा पी लो, सब-कुछ हो गया। लीला-रानी, देखो, यह सोने का जाल नया बनकर आया है । कामना-बहुत अच्छा है। लालसा-और यह सोने के तारों से बिनी हुई नयी गडी तो देखी ही नहीं। (दिखाती है) कामना-वाह ! कितनी सुन्दर शिल्पकला है ! विनोद- इस देश से खूब सोना घर भेजा गया है। वहाँ नये-नये सौन्दर्य- साधन बनाये जा रहे है। रानी, लाल रक्त गिराने से पीला सोना मिलने लगा। कसा अच्छा खेल है। कामना -बहुत अच्छा। लालसा - आज विलास सेनापति होकर आक्रमण करने गये हैं, तो विनोद, तुम्ही मेरे पटमण्डप मे चलो। मैं अकेली कैसे रहूँगी ? विनोद -हां, यह तो अत्यन्त खेद की बात है। परन्तु कोई चिन्ता नही। चलो। (दोनों जाते हैं) लीला-रानी! कामना-लीला! लीला-यह सब क्या हो रहा है ? कामना-ऐश्वर्य और सभ्यता के परिणाम । लीला --तुम रानी हो, रोको इसे । कामना-मेरा स्वर्ण-पट्ट देखकर प्रथम तुम्ही को इसकी चाह हुई, आकांक्षा हुई। अब क्या, देश मे धनवान और निर्धन, शासकों का तीव्र तेज, दीनों की विनम्र-दयनीय दासता, सैनिक-बल का प्रचण्ड ताप, किसानों की भारवाही पशु की पराधीनता, ऊंच और नीच, जात और बर्बर, सैनिक किसान, शिल्पी और व्यापारी और इन सभी के ऊपर मभ्य व्यवस्थापक -सब कुछ तो है। नये-नये कामना:४०३