पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सिल्यूकस-उस बुद्धिसागर, आर्य-साम्राज्य के महामन्त्री चाणक्य को देखने की बड़ी अभिलाषा थी। चन्द्रगुप्त---उन्होंने विरक्त होकर, शान्तिमय जीवन बिताने का निश्रय किया है। [सहसा चाणक्य का प्रवेश | सब अभ्युत्थान देकर प्रणाम करते हैं] सिल्यूकस-आर्य चाणक्य ! मै आपका अभिनन्दन करता हूँ। चाणक्य-सुखी रहो सिल्यूकस, हम भारतीय ब्राह्मणों के पास सबकी कल्याण- कामना के अतिरिक्त और क्या है--जिससे अभ्यर्थना करूं ? मै आज का दृश्य देख- कर चिर-विश्राम के लिए संसार से अलग होना चाहता हूँ। सिल्यूकस और मैं सन्धि करके स्वदेश लौटना चाहता | आपके आशीर्वाद की बड़ी अभिलाषा थी। सन्धि-पत्र... चाणक्य-किन्तु सन्धि-पत्र स्वार्थों से प्रबल नहीं होते, हस्ताक्षर तलवारों को रोकने में असमर्थ प्रमाणित होंगे। तुम दोनों ही सम्राट हो, शस्त्र-व्यवसायी हो, फिर भी संघर्ष हो जाना कोई आश्चर्य की बात न होगी। अतएव दो बालुकापूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल स्रोतस्विनी का रहना आवश्यक है। सिल्यूकस-सो कैसे ? चाणक्य--ग्रीस की गौरव-लक्ष्मी कार्नेलिया को मैं भारत की कल्याणी बनाना चाहता हूँ !--यही ब्राह्मण की प्रार्थना है । सिल्यूकस--मै तो इससे प्रसन्न ही हूँगा, यदि चाणक्य-यदि का काम नही, मैं जानता हूँ, इसमें दोनों प्रसन्न और सुखी होंगे ! सिल्यूकस--(कार्नेलिया की ओर देखता है, वह सलज्ज सिर झुका -तब आओ बेटी, आओ चन्द्रगुप्त । [दोनों ही सिल्यूकस के पास आते हैं | सिल्यूकस उनका हाथ मिलाता है | फूलों की वर्षा और जय-ध्वनि] चाणक्य--(मौर्य का हाथ पकड़कर)-चलो, अब हमलोग चलें ! पटाक्षेप लेती है)- चन्द्रगुप्त : ६५३