पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

करुणालय प्रथम दृश्य स्थान- -सरयू नदी जल जब झम के। (नाव पर जन-विहार करते हुए महाराज हरिश्चन्द्र का महचर-जनो के महिन प्रवेश) हरिश्चन्द्र-गान्ध्य नीलिमा फैल रही है, प्रान्त मे- मरिता के। निर्मल विधु विम्ब विकाग है, जो नभ में धीरे-धीरे है चढ रहा । प्रकृति सजानी आगत-पतिका रूप को। मलयानि न-ताडित लहगे में प्रेम से- मे ये शैवाल-जाल हे झूमते । हरे शालि के गेत पुलिन मे है भरे फल से बने तरगायित ये सिन्धु से, लहराते वे मारुत-वश जल मे उठती लहर बुलाती है तरी- को, जो आती उस पर कैसी नाचती। अहा ! खिल रही विमल चाँदनी भी मली। तारागण भी उस मस्तानी चाल को देख रहे हैं, चलती जिससे नात है। वशी-रव से होता पूर्ण दिगन्त है- जो परिमल-पट-सा फैल रहा अवकाश मे। प्रकृति चित्र-पट-सा दिखलाती है अहा, कल-कल शब्द नदी से भिन्न न और का, गान्ति ! प्रेममय शान्ति भरी है विश्व मे । सुन्दर है अनुकूल-पवन, झूम-झूमकर धीरे-धीरे चल रहा। पिये प्रेम-मदिरा विह्वल-सा हो रहा आनन्द मे- करुणालय : ५७