पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३५

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कील की तरह गड़ गया है और उसे अपने सरल प्रवर्त्तन-चक्र में धूमने से रोक रहा है। निश्चय ही वह कुमार चन्द्रगुप्त की अनुरागिनी है।

चन्द्रगुप्त––(सहसा प्रवेश करके) कौन?––मन्दा!

मन्दाकिनी––अरे कुमार! अभी थोड़ा विश्राम करते।

चन्द्रगुप्त––(बैठते हुए) विश्राम! मुझे कहाँ विश्राम? मैं अभी यहाँ से प्रस्थान करने वाला हूँ। मेरा कर्तव्य पूर्ण हो चुका। यहाँ मेरा ठहरना अच्छा नही।

मन्दाकिनी––किन्तु, भाभी की जो बुरी दवा है।

चन्द्रगुप्त––क्यो उन्हे क्या हुआ? (मन्दाकिनी चुप रहती है) बोलो, मुझे अवकाश नही! राजाधिराज का सामना होते ही क्या हो जायगा––मैं नही कह सकता। क्योकि अब यह राजनीतिक छल-प्रपंच मैं नही सह सकता।

मन्दाकिनी––किन्तु, उन्हे इस असहाय अवस्था में छोडकर आपका जाना क्या उचित होगा? और...(चुप रह जाती है)

चन्द्रगुप्त––और क्या? वही क्यो नहीं कहती हो?

मन्दाकिनी––तो क्या उसे भी कहना होगा? महादेवी बनने के पहले ध्रुवस्वामिनी का जो मनोभाव था, वह क्या आपसे छिपा है?

चन्द्रगुप्त––किन्तु मन्दाकिनी! उसकी चर्चा करने से क्या लाभ?

मन्दाकिनी––हृदय में नैतिक साहस––वास्तविक प्रेरणा और पौरुष की पुकार एकत्र करके सोचिए तो कुमार, कि अब आपको क्या करना चाहिए? (चन्द्रगुप्त चिन्तित भाव से टहलने लगता है / नेपथ्य में कुछ लोगों के आने-जाने का शब्द और कोलाहल) देखूँ तो यह क्या है? और महादेवी कहाँ गयी? (प्रस्थान)

चन्द्रगुप्त––विधान की स्याही का एक बिन्दु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने में भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवदेवी मेरी है। (ठहरकर) हाँ, वह मेरी है, उमे मैने आरम्भ से ही अपनी सम्पूर्ण भावना से प्यार किया है। मेरे हृदय के गहन अन्तस्तल से निकली हुई यह मूक स्वीकृति आज बोल रही है। में पुरुष हूँ नही, मैं अपनी आँखो से अपना वैभव और अधिकार दूसरो को अन्याय से छीनते देख रहा हूँ और मेरी वाग्दत्ता पत्नी मेरे ही अनुत्साह से आज मेरी नही रही। नही, यह शील का कपट, मोह और प्रवञ्चना है। मैं जो हूँ, वही तो नही स्पष्ट रूप से प्रक्ट कर सका। यह कैसी विडंबना है! विनय के आवरण मे मेरी कायरता अपने को कब तक छिपा सकेंगे?

[एक ओर से मन्दाकिनी का प्रवेश]

मन्दाकिनी––शकराज का शव लेकर जाते हुए आचार्य और उसकी कन्या का राजाधिराज के साथी सैनिको ने बध कर डाला!

ध्रुवस्वामिनी : ७१५