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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९२

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न ये कुछ जानते क्या, यी वह इतनी सार्वजनिक सम्पत्ति है नहीं, नहीं, 'वह मेरा है' यह स्वत्व है जब थे अज्ञान सुख किसका है नाम, तरुणता वस्तु प्रकृति प्रलोभन में न फैसे थे, पास की वस्तु न यों आकर्षित करती थी हमें, तभी क्यों न कर लिया क्रूर बलि-कर्म को। अहा स्वच्छ नभ नील, अरुण रवि-रश्मि की सुन्दर माला पहन, मनोहर रूप में नव प्रभात दृश्य मुखद है सामने उसे बदलना नील तमिस्रा रात्रि से जिसमें तारा का भी कुछ न प्रकाश है प्रकृति मनोगत भाव सदश जो गुप्त, यह कैसा दुखदायक है ? हाँ बस ठीक है। देखेंगे परिवर्तनशीला प्रकृति को घूमेगे बस देश-देश स्वाधीन हो आहार, जीव सहचर सभी नव किसलय दल सेज सजी सब स्थान में, कहो रही क्या कमी सहायक चाप है। का मृगया से (नेपथ्य से) चलो सदा चलना ही तुमको श्रेय है। खड़े रहो मत, कर्म-मार्ग विस्तीर्ण है। चलनेवाला पीछे को ही छोड़ता सारी बाधा और आपदा-वृन्द को। चले चलो, हाँ मत घबराना तनिक भी धूल नहीं यह पैरों लग रही समझो, यही विभूति लिपटती है तुम्हें । बढ़ो, बढ़ो, हाँ रुको नही इस भूमि में, इच्छित फल की चाह दिलाती बल तुम्हें, सारे उसको फूलों के हार से लगते हैं, जो पाता ईप्सित वस्तु को । चलो पवन की तरह, रुकावट है कहाँ, ७६ :प्रसाद वाङ्मय