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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१६४

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के श्रीपर्वत से जिस मंत्रवाद का बौद्धों में प्रचार हो रहा था, वह धीरे-धीरे वजयान में किस तरह परिणत हुआ और आगम संप्रदाय में घुस कर •अनात्मवादी गैरों ने आत्मा की अवहेलना करके भी वैदिक अंबिका आदि देवियों के अनुकरण में कितनी शक्तियों की मृष्टि की और कैसी रहस्यपूर्ण साधना-पद्धतियां प्रचलित की, उसका विवरण देने के लिए यहाँ अवसर नहीं। इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि उन्होंने बुद्ध, धर्म और संघ के त्रिरत्न के स्थान पर कामिनी, काम और सुरा को प्रतिष्ठित किया। धारणी मंत्रों की योजना की। पीछे ये मंत्रात्मक भावनाएँ प्रतिमा बनने लगीं। मंत्रों में जिन विचारधाराओ का संकेत था, वे देवता का रूप धर कर व्यक्त हुई। परोक्ष-पूजापद्धति की प्रचुरता हुई । पौराणिक-धर्म ने इसी ढंग पर देववाद का प्रचार किया। उपनिषदों के षोडश- कला-पुरुष के प्रतिनिधि बने सोलह कलावाले पूर्ण अवतार श्रीकृष्णचंद्र । सुंदर नर- रूप की यह पराकाष्ठा थी। नारी-मूत्ति में मुंदरी की, ललिता की-सौदर्य-प्रतिमा के अतिरिक्त सौंदर्य-भावना के लिए अन्य उपाय भी माने गये । 'नरपति-जयचर्या' स्वर-शास्त्र का एक प्राचीन ग्रंथ है। उसमें मन की भावना के लिए बताया गया है- गौरांगी नवयौवनां शशिमुखी ताम्बूलगर्भाननां मुक्तामंडनशुभ्रभाल्यवसनां श्रीखंडचर्चाकिताम् । दृष्ट्वा कामपि कामिनी स्वमिमां ब्राह्मी पुरो भावये दंतश्चितयतो जनस्य मनसि त्रैलोक्यमुन्मीलिनीम् ।। यह सौंदर्य-धारणा हृदय में त्रैलोक्य का उन्मीलन करनेवाली है। यहाँ समझ लेना चाहिए कि भारत में सौदर्य-आलम्बन नर और नारी की प्रतिच्छवि मन को महाशक्तिशाली बनाने तथा उन्नत करने के उपाय में उपासना के स्वरूप में व्यवहृत होने लगी थी। बौद्धों के उत्तराधिकारी भी शून्यवाद से घबरा कर अनेक प्रकार की मंत्र- साधना में लगे थे, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प देखने से यह प्रकट होता है। फिर शैवागमों में जो अनुकूल अंग थे, उन्हें भी पनाने से ये न रुके । योगाचार तथा अन्य गुप्त साधनाओं वाला बौद्ध-संप्रदाय आनंद की खोज में आगमवादियों से मिला। विचारों में 'सर्व क्षणिकं सर्व दुःखं सर्वमनात्मम्' '---पर 'आनंदरूपममृतं यद्विभाति' ने विजय प्राप्त की। परंतु इनके संपर्क में आने पर शैवागमों का विश्वात्मवाद वाला शांभव सिद्धांत भी व्यक्तिगत संकुचित अहं मे सीमित होने लगा। इस संकुचित आत्मवाद को आगमों में निंदनीय और अपूर्ण अहंता कहते थे; किंतु बौद्धों ने उस सरल अद्वैतबोध को व्यक्तिगत आत्मवाद की ओर झुकाकर शरीर को वज्र की तरह अप्रतिहतगतिशाली बनाने के लिए तथा सांपत्तिक स्वतंत्रता के लिए रसायन बनाने ६४:प्रमाद वाङ्मय