पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७९

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कर उसे छिन्न-भिन्न कर देना है । ये सब मुख्य रस वस्तु के सहायक-मात्र हैं। अन्वय और अतिरेक से, दोनों प्रकार से वस्तु-निर्देश किया जाता है। इसलिए मुख्य रस का आनंद बढ़ाने में ये सहायक-मात्र ही हैं, वह रसानुभूति निम्न कोटि की नहीं होती। इस कल्पना के और भी कारण हैं। वर्तमान काल में नाटकों के विषयों के चुनाव में मतभेद है। कथा-वस्तु भिन्न प्रकार से उपस्थित करने की प्रेरणा बलवती हो गयी है। कुछ लोग प्राचीन रस-सिद्धांत से अधिक महत्त्व देने लगे हैं-चरित्र- चित्रण पर। उनसे भी अग्रसर हुआ है दूसरा दल, जो मनुष्यों के विभिन्न मानसिक आकारों के प्रति कुतूहलपूर्ण है; अथच व्यक्ति-वैचित्र्य पर विश्वास रखनेवाला है। ये लोग अपनी समझी हुई कुछ विचित्रता-मात्र को स्वाभाविक चित्रण कहते हैं, क्योंकि पहला चरित-चित्रण तो आदर्शवाद से बहुत घनिष्ठ हो गया है, चारित्र्य का समर्थक है, किंतु व्यक्ति-वैचित्र्यवाले अपने को यथार्थवादियों में ही रखना चाहते हैं । यह विचारणीय है. कि चरित्र-चित्रण को प्रधानता देनेवाले ये दोनों पक्ष रस से कहां तक संवद्ध होते हैं। इन दोनों पक्षों का रस से मीधा संबंध तो नहीं दिखाई देता; क्योंकि इसमें वर्तमान युग की मानवीय मान्यताएं अधिक प्रभाव डाल चुकी हैं, जिसमें व्यक्ति यमको विरुद्ध स्थिति में पाता है। फिर उसे साधारणतः अभेदवाली कल्पना, रस का साधारणीकरण कैसे हृदयंगम हो ? वर्तमान युग बुद्धिवादी है, आपाततः उसे दुःख को प्रत्यक्ष मत्य मान लेना पड़ा है। उसके लिए संघर्ष करना अनिवार्य-सा है । कितु इममें एक बात और भी है। पश्चिम को उपनिवेश बनानेवाले आर्यों ने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए मानवीय भावनाएं विशेष परिस्थिति उत्पन्न कर देती हैं। उन परिस्थितियों से व्यक्ति अपना सामंजस्य नहीं कर पाता। कदाचित् दुर्गम भूभागों में, उपनिवेशों की खोज में, उन लोगों ने अपने को विपरीत दशा में ही भाग्य से लड़ते हुए पाया। उन लोगों ने जीवन की इस कठिनाई पर अधिक ध्यान देने के कारण इस जीवन को (ट्रेजडी) दुःखमय ही समझ पाया (लिया-सं०)। और यह उनकी मनुष्यता की पुकार थी-आजीवन लड़ने के लिए । ग्रीक और रोमन लोगों को बुद्धिवाद-भाग्य से, और उसके द्वारा उत्पन्न दुःखपूर्णता से संघर्ष करने के लिए अधिक अग्रसर करता रहा। उन्हें सहायता के लिए संघबद्ध होने पर भी, व्यक्तित्व के, पुरुषार्थ के विकास के लिए, मुक्त अवसर देता रहा; इसलिए उनका बुद्धिवाद, उनकी दुख-भावना के द्वारा अनुप्राणित रहा। इसी को साहित्य में उन लोगों ने प्रधानता दी। यह भाग्य या नियति की विजय थी। परंतु अपने घर में सुव्यवस्थित रहनेवाले आर्यों के लिए यह आवश्यक न था, यद्यपि उनके एक दलने संसार में सबसे बड़े बुद्धिवाद और दुःख-सिद्धांत का प्रचार किया, जो विशुद्ध दार्शनिक ही रहा । साहित्य में उसे स्वीकार नहीं किया गया। हाँ, यह एक प्रकार का विद्रोह ही माना गया। भारतीय आर्यों को निराशा न थी। नाटकों में रस का प्रयोग : ७९