पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९१

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अपटीक्षेप का प्रयोग आजकल की तरह दृश्य या स्थान को प्रधानता देकर नही किया जाता था, किन्तु वे कथावस्तु के विभाजन-स्वरूप ही होते थे। पांच अंक के नाटक रगमंच के अनुकूल इसलिए माने जाते थे कि उनमे कथा-वस्तु की पांचो सन्धियों का विकास होता था । और कभी-कभी हीन सन्धि नाटक भी रगमच पर अभिनीत होते थे, यद्यपि वे नियम-विरुद्ध माने जाते थे। गरी, तीसरी चौथी सधियो का अर्थात बिन्दु, पताका और प्रकरी का लोप हो मकना था, किन्तु पहली और पांचवी सन्धि का अर्थात् बीज और कार्य का रहना आनय माना गया है। आरम्भ और फलयोग का प्रदर्शन रगमच पर आवश्यक माना गया है रगम च की बाभ्य-बाधक्ता का जब हम विचार करते है, तो उसके इतिहास से यह प्रकट होता है कि काव्यो के अनुसार प्राचीन रगमच विकमित हुए और रंगमंचों को नियमानुकूलता मानने के लिए काव्य अधित नहीं हुए। अर्थात् रंगमंचों को ही काव्य के अनुसार अपना विस्तार करना पड़ा और यह प्रत्येक काल में माना जायगा कि काच्यो के अथवा नाटकों के लिए ही रंगमंच होते है। काव्यों की सुविधा जुटाना रंगमंच का काम है। क्योंकि रसानुभूति के अनन्त प्रकार नियमबद्ध उपायो से नही प्रदर्शित किये जा सकते और रगमंच ने सुविधानुसार काव्यों के अनुकूल ममय-समय पर अपना स्वरूप परिवर्तन किया है। (और आगे भी करना होगा-सं०) मध्यकालीन भारत मे जिस आतक और आयरता का माम्राज्य था, उमने यहां की मर्व-साधारण प्राचीन रगशालाओ को नोड-फोन दिया। धर्माध आक्रमणो ने जब भारतीय रगमन वे शिल्प का विनारा दिया तो देवालयो मे सलग्न मण्डपो मे छोटे-मोटे अभिनय सर्वसाधारण के लिए प्रभ रह गय। उत्तरी भारत मे तो औरगजेब के ममय में ही साधारण सगीत का भा 'नाजा' निकाला जा चुका था, किन्तु रगमच से बिहीन कुछ अभिना बच ग्य, जिन्ने हम पारसी स्टेजो के आने के पहले भी देनते रहे है। इनमे मुग्यन नोटकी (नाटकी ) गौर भांड ही थे। रामलीला और यात्राओ का भी नाम लिया जा सकता है। मार्वजनिक रगमचो के विनष्ट हो जाने पर यह खते मैदानो में तथा उन्मवो के अवसर पर येले जाते थे। रामलीला और यात्रा तो देवता-विषयक अभिनय ये किन्तु नाटकी और भाँडो मे शुद्ध मानव-सम्बन्धी अभिनर होते थे। मेग निश्चित विचार है कि भांडो की परिहाम की अधिकता मस्कृत भाण मुकुदानन्द और रससदन आदि की परम्परा मे है, और नाटकी या नौटमी प्राचीन राग कान्य अथवा गीति-नाट्य की स्मृतियां है । जैसे गमलीला पाठव-काव्य रामायण के आधार पर वैमी ही होती है, जैसे प्राचीन महाभारत और वाल्मीकि के पाठयाव्यो के माथ अभिनय होता था। दविखन मे अब मी कथकलि अभिनय उस प्रथा को सजीव किये है। प्रवृत्ति वही पुरानी है, . रगमंच . ९१