पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२०४

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कभी समाज के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, कभी त्याज्य होते है । दुरुपयोग से मानवता के प्रतिकूल होने पर अपराध कहे जाने वाले कर्मो से जिस युग के लेखक समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं. वे ऐसे कर्मों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं । व्यक्ति की दुर्बलता के कारण की खोज में व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक अवस्था और सामाजिक रूढ़ियों को पकड़ा जाता है । और, इस विषमता को ढूढ़ने पर वेदना ही प्रमुख होकर मामने आती है। साहित्यिक न्याय की व्यावहारिकता मे वह संदिग्ध होता है । तथ्यवादी पतन और स्खलन का भी मूल्य जानता है। और वह मूल्य है - स्त्री नारी है और पुरुष नर है - इनका परस्पर केवल यही सम्बन्ध है । वेदना से प्रेरित होकर जन-साधारण के अभाव और उनकी वास्तविक स्थिति तक पहुंचने का प्रयत्न यथार्थवादी साहित्य करता है। इस दशा मे प्राय: मिद्धांत बन जाता है कि हमारे दु ख और कष्टों के कारण प्रचलित नियम और प्राचीन मामाजिक रूढ़ियाँ है। फिर तो अपराधों के मनोवैज्ञानिक विवेचन के द्वारा यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न होता है कि वे मब ममाज के कृत्रिम पाप है। अपराधियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन के सुधार का आरम्भ साहित्य मे होने लगता है। इस प्रेरणा में आत्मनिरीक्षण और शुद्धि का प्रयत्न होने पर भी व्यक्ति के पीड़न, कष्ट और अपराधों से समाज को परिचित कराने का प्रयत्न भी होता है । और, यह सब व्यक्ति-वैचित्र्य से प्रभावित होकर पल्लवित होता है। स्त्रियों के सम्बन्ध में नारीत्व की दृष्टि ही प्रमुख होकर, मातृत्व से उत्पन्न हुए सब मम्बन्धों को तुच्छ कर देती है । वर्तमान युग की ऐसी प्रवृत्ति है । जब मानसिक विश्लेषण के इस नग्न रूप मे मनुष्यता पहुंच जाती है, तब उन्ही मामाजिक बन्धनों की बाधा घातक समझ पड़ती है और इन बंधनों को कृत्रिम और अवास्तविक माना जाने लगता है । यथार्थवाद क्षुद्रों का ही नहीं, अपितु महानो का भी है। वस्तुतः यथार्थवाद का मूल भाव है-वेदना । जब मामूहिक चेतना छिन्न-भिन्न होकर पीड़ित होने लगती है, तब वेदना की विवृति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते है- साहित्यकार को आदर्शवादी होना ही चाहिए और सिद्धांत से ही आदर्शवादी धार्मिक प्रवचनकर्ता बन जाता है । वह ममाज को मा होना चाहिए, यही आदेश करता है । और, यथार्थवादी मिद्धात मे ही इतिहासकार से अधिक कुछ नहीं ठहरता, क्योंकि यथार्थवाद इतिहाम की संपत्ति है । वह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था, किंतु साहित्यकार न तो इतिहामकर्ता है और न धर्मशास्त्र-प्रणेता। इन दोनों के कर्त्तव्य स्वतंत्र है। साहित्य इन दोनों की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य, ममय की वास्तविक स्थिति क्या है, इसको दिखाते हुए भी उसमें आदर्शवाद का सामंजस्य स्थिर करता है। दुःख-दग्ध जगत् और आनन्दपूर्ण स्वर्ग का एकीकरण माहित्य है; इमीलिए अमत्य अघटित घटना पर कल्पना को १०४ : प्रसाद वाङ्मय