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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२६२

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की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते हैं। उसके मूल में क्या रहस्य है ? आत्मा की अनुभूति ! हां, उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बन कर, प्रत्यक्ष होती है । फिर, वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव मे परिणत हो जाती हैं। किन्तु, सूक्ष्म अनुभूति था भाष, चिरंतन सत्य के रूप मे प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग-युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभि- व्यक्ति होती रहती है। जल-प्लावन भारतीय इतिहास में एक ऐमी ही प्राचीन घटना है, जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। वह इतिहास ही है। 'मनवे वै प्रातः' इत्यादि से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवे अध्याय मे मिलता है। देवगण के उच्छ्ह्वल स्वभाव, निर्बाध आत्मतुष्टि मे अन्तिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात् श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर प्राणी को एक नये युग की सूचना मिली। इस मन्वन्तर के प्रवर्तक मनु हुए। मनु, भारतीय इतिहास के आदि पुरुष हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध इन्हीं के वंशज हैं। शतपथ ब्राह्मण मे उन्हे श्रद्धादेव कहा गया है, 'श्रद्धादेवो व मनुः' (का० प्र० १) भागवत मे इन्ही वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारंभ माना गया है। "ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत श्रद्धाया जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान् ।" (९-१-११) छादोग्य उपनिषद् मे मनु और श्रद्धा की भावमूलक व्याख्या भी मिलती है। 'यदा वै श्रद्धधाति अथ मनुते नाऽश्रद्धधन् मनुते' यह कुछ निरुक्त की-सी व्याख्या है। ऋग्वेद मे श्रद्धा और मनु दोनो का नाम ऋपियो की तरह मिलता है। श्रद्धा वाले सूक्त मे सायण ने श्रद्धा का परिचय देते हुए लिखा है, 'कामगोत्रजा श्रद्धानामर्षिका।' श्रद्धा कामगोत्र की बालिका है, इमलिए श्रद्धा नाम के माथ उसे कामायनी भी कहा जाता है। मनु, प्रथम पथ-प्रदर्शक और अग्निहोत्र प्रज्वलित करने वाले तथा अन्य कई वैदिक कथाओ के नायक है : -मनुर्हव। अग्रे यज्ञेनेजे यदनुकृत्येमाः प्रजा यजन्ते (५-१ शतपथ)। इनके सम्बन्ध मे वैदिक साहित्य मे बहुत-सी बाते बिखरी हुई मिलती है, किंतु उनका क्रम स्पष्ट नही है। जल-प्लावन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण के आठवे अध्याय से आरम्भ होता है, जिसमे उनकी नाव के उत्तरगिरि हिमवान प्रदेश मे पहुंचने का प्रसंग है। वहाँ ओध के जल का अवतरण होने पर मनु भी जिस स्थान पर उतरे उसे 'मनोरवमर्पण' कहते है ! 'अपीपरं वै स्वा, वृक्षे नावं प्रतिबघ्नीष्व, तं तु त्वा मा गिरी मन्तमुदकमन्तश्चत्सीद् यावद् यावदुदकं समवायात्- तावत् तावदन्ववससि इति स ह तावत तावदेव सर्प । तदप्येतदुत्तरस्य गिरेमनोरवसर्पणमिति । (८-१) १६२ : प्रसाद वाङ्मय