ईत अनुवर्त मे आकलित संस्मरणों के अध्ययन से पूज्य पिताश्री के व्यक्तित्व को रूपरेखा के बहुत कुछ समीप हुआ जा सकेगा; इनमें कृतित्त्व के रंग भी उभरते हैं- जो--किसी कृती से सन्दभित संस्मरण में स्वाभाविक है। इनका काल-विस्तार दूसरे, तीसरे और चौथे दशक के सात वर्षों तक किवा १९१० से १९३७ तक फैला है । और यही वह समय है, जिममे जन-भाषा एवं साहित्य-भाषा के विकास, वैचारिक संक्रान्ति की शृंखला - जिससे समाज की वृत्तियां प्रभावित रही- अग्रसर हुई थी। समकालीन समाज की उत्क्रान्त प्रगति मे -विगतार्थ रूढियो और बन्धनो के उच्छेद की दृढ अभीप्सा के जागरण से यह काल विस्तार श्रीमन्त है। पूज्य पिताश्री के समकालीनो द्वाग उरेहे गए चित्रो की गहरी, पुष्ट और रंगीन रेखाओं में अवगाहन से उस दुर्द्धर्ष जिजीविषा का परिचय मिल सकता है जो प्रसाद- वाङ्मय मे प्राण रूपेण प्रतिष्ठित है । मै, सभी सस्मरण लेखको के 'दरमपरस' से भाग्यवन्त- उन पूज्यपुरुषो को अपना सविनय नमन देते आज हर्पित है जिनक गरिमा-पदा का मरी छोटी उगलियाँ कभी नाप चुकी है। आज, उन क्षणों के भाव-स्पर्श ने मुझे सप्तति को खा पर पहुँचते-पहुंचते हठात् शैशव-कशोर के वृत्त में खीच कर 'आसप्तति कैशोर' को चरितार्थ कर दिया : और, परम माहेश्वर, उत्पल देव की इन आलोक-सिद्ध पंक्तियों का भी कुछ अनुभव-सा करा दिया- आत्मा मम भवद्भक्तिसुधापानयुवाऽपि सन् लोकयात्रारजोरागात्पलितरिव पूसरः श्रीकृष्ण जयन्ती २०१ 12 5377
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२९९
दिखावट