________________
पहली यह है कि जिस विक्रमादित्य का उल्लेख शाकुन्तल में है, उसका नाम विक्रमादित्य है और साहसांक' इसकी उपाधि है। दूसरे भरत वाक्य में 'गण' शब्द के द्वारा इन्द्र और विक्रमादित्य के लिए यज्ञ और गण राष्ट्र-दोनों की ओर कवि का संकेत है। इसमें राजा या सम्राट् जैसा कोई संबोधन विक्रमादित्य के लिए नहीं है। तब यह विचार पुष्ट होता है कि विक्रमादित्य मालव गणराष्ट्र का प्रमुख नायक था, न कि कोई सम्राट् या राजा। कुछ लोग जैत्रपाल को विक्रमादित्य का पुत्र बताते हैं। हो सकता है इसी के एकाधिपत्य से मालवगण में फूट पड़ी हो और शालिवाहन के द्वितीय शक-आक्रमण में वे पराजित हुए हों। ___ चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य मालव का अधिपति नही था, वह पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य था। उसने स्त्री-वेश धारण करके किसी शक-नरपति को मार डाला था। पर, पश्चिमी मालवा और सौराष्ट्र उसके समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, क्योंकि नरवर्मा और विश्ववर्मा का मालव मे और स्वामी रुद्रसिंह आदि तीन स्वतन्त्र नरपति-नाम सौराष्ट्र के शकों के मिलते हैं। इसके लेख आकर, उदयगिरि और गोपाद्रि तक ही मिलते है। जैसा विक्रमादित्य का चरित्र है, उसके विरुद्ध इसके पबन्ध में कुछ गाथाये मिलती है। अपने पिता समुद्रगुप्त की विजयों के आधार पर किसी शक-नरपति को मार कर, इसने भी पहली बार विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली थी। यह असली विक्रमादित्य के बराबर अपने को समझता था। _ 'कथा सरित्सागर' और 'हर्षचरित' से लिय अवतरणों पर ध्यान देने से यह विदित होता है कि यह शक-विजय किसी छल से मिली थी। तुआर (शिवप्रसाद के मतानुसार पंवार) या मालवगण के प्रमुख अधीश्वर से भिन्न यह पाटिलपुत्र का विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त था, जिसका समय ३८५ (४००) ? से प्रारम्भ होकर ४१३ ई. तक था। ____ कुछ लोगों का मत था कि मालव का यशोधर्म देव तीसरा विक्रमादित्य था। परन्तु जिस 'राजतरंगिणी' से इसके विक्रमादित्य होने का प्रमाण दिया जाता है, उसमें यशोधर्म के साथ विक्रम शब्द का कोई उल्लेख नही है। उसके शिलालेखों, सिक्कों में भी इसका नाम नहीं है। यशोधर्म के जयस्तम्भ में हूण मिहिरकुल को पराजित करने का प्रमाण मिलता है, परन्तु यह शकारि नही था। यह अनुमान भी भ्रान्त है कि इसी यशोधर्मदेव ने मालव संवत् के साथ विक्रम नाम जोड़कर विक्रमसंवत् का प्रचार किया, क्योंकि उसी के अनुचरों के शिलालेख में मालवगण-स्थिति का स्पष्ट उल्लेख है पंचसू शतेसु शरवां यातेष्वेकानवति सहितेषु । मालवगण स्थिति वशात् कालज्ञानाय लिखितेषु ।। स्कंदगुप्त विक्रमादित्य-परिचय : ३३