पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४६

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दिया और यही कारण था कि जो व्यक्ति उनसे कभी न मिला हो, उसके हृदय में प्रसादजी के प्रति गलत भावना हो जाना कोई अनहोनी बात न थी। X X X प्रसादजी के समान लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार से मिलने को कौन उत्सुक न होगा ! परन्तु प्रसादजी हमेशा बाहरी आडंबर एवं ऊपरी दिखावट से दूर ही रहे, जिससे एक अनजान व्यक्ति के लिए उनके व्यक्तित्व में विशेष आकर्षण नही हो सकता था। यही कारण था कि प्रसादजी से मिलने के लिए मुझे विशेष उत्सुकता नही थी। बनारस जाकर भी प्रसादजी से मिलने की न सोचना, हिन्दी-साहित्य से प्रेम रखनेवाले व्यक्ति के लिए एक भयंकर अपराध से किसी भी प्रकार कम नहीं था। परन्तु, यही ख्याल जी में घर कर गया था कि प्रसादजी बहुत ही रूखे-सूखे, एकांतसेवी साहित्यिक व्यक्ति है । 'आंसू' के लेखक को एक हृदयविहीन व्यक्ति मानना कुछ असंभव-सा प्रतीत होता था; परन्तु प्रसादजी की वह संस्कृत-प्रधान भाषा और उनके वे बौद्धकालीन नाटक, मुझे संस्कृत के कट्टर पण्डितों और मुंडे हुए सिरवाले भिक्षुकों की याद दिलाते थे। उन पण्डितों की वह नीरसता, अपनी विद्वत्ता पर उनका अगाध अभिमान, दूसरो को निरन्तर उपदेश देते रहने की उनकी वह प्रवृत्ति एवं संस्कृत न जाननेवालो के प्रति उनका तीव्र तिरस्कार एकबारगी याद आ जाता था। प्रसादजी के व्यक्तित्व के माथ उनका संबंध-सा जान पडता था और आप-ही- आप प्रसादजी के पास जाने में कुछ हिचक भी पैदा होने लगती थी। पुनः प्रसादजी के जो चित्र देखने को मिले थे-श्रीयुत व्यास जी की कृपा से प्रसादजी का एक चित्र उनके हस्ताक्षर समेत मुझे भी प्राप्त हो गया था -उनसे प्रसादजी की गंभीरता ही प्रदर्शित होती थी। प्रसादजी तक पहुंचकर कोई भी मनोरंजन होने की संभावना नही देख पड़ती थी। प्रसादजी से मिलने के बाद मेरा यह निश्चित मत हो गया कि प्रसादजी का जो चित्र, उनका जो व्यक्तित्व हमें उनकी कृतियों या उनकी तस्वीरों में देखने को मिलता है, वह उनके मच्चे व्यक्तित्व से बहुत ही भिन्न था। ऐसा प्रतीत होता है कि अपना चित्र उतरवाते समय प्रसादजी हमेशा Camera Conscious हो जाते थे-चित्र उतरवाने के खपाल से ही वे गंभीर बन जाते थे। प्रसादजी का वह हंसमुख चेहरा, उनकी वह आनन्द-भरी बातचीत एवं प्रफुल्ल व्यक्तित्व उनसे मिलनेवालों एवं उनके परिचितों तक ही सीमित रहा। जिन्हें कभी भी उनसे मिलने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था, उनके लिए प्रसादजी के स्वभाव का ठीक-ठीक अन्दाज लगाना कठिन ही नहीं, असंभव था। X X 'भारत-कला भवन' को देख चुकने के बाद जब लौट रहे थे, तब राय साहब ने पूछा-'क्या प्रसादजी से मिले हो ?' X ४२: प्रसाद वाङ्मय