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पर बौद्ध धर्म की छाप है । नाटककार ने अपने पूर्ववर्ती नाटककारों के जो नाम लिए है. उनमें सौमिल्ल और कविपुत्र के नाटयरत्नों का पता नही। भास के नाटकों को चौथी शताब्दी ईसा पूर्व माना गया है। (३) नाटककार ने 'मालविकाग्निमित्र' की कथा का जिस रूप मे वर्णन किया है, वह उसके समय से बहुत पुरानी नही जान पड़ती। शुगवंशियो के पतन-काल मे विक्रमादित्य का मालवगण के राष्ट्रपति के रूप मे अभ्युदय हुआ। उसी काल मे कालिदास के होने से शुगो की चर्चा बहुत नाजी-सी मालूम होती है। (४) 'ज्यामिति' और 'होरा' इत्यादि शब्द जिनका प्रचार भारत मे ईसा की पांचवी शताब्दी के समीप हुआ, नाटक मे नही पाये जाते और 'शाकुन्तल' की जिस प्रति का हम उल्लेख कर चुके है, उसमे स्पाटरूपेण विक्रमादित्य से गणराष्ट्र का सम्बन्ध सकेतित है और कालिदास का उग नाटक का स्वय प्रयोग करना भी ध्वनित होता है। यह अभिनय 'साहसाक' उपाधिकारी विक्रमादित्य नाम के मालवगणपति की परिषद् में हुआ था। इसलिए नाटककार वालिदास ईसापूर्व पहली शताब्दी के है। (५) नाटको की प्राकृत में मागधी-प्रचुर प्राकृत का प्रयोग है। उस प्राकृत का प्रचार भारत मे सेकडो वर्ष पीछे कहाँ था ? पांचवी-छठवी शताब्दी मे महाराष्ट्री प्राकृत प्रारम्भ हो गई थी और उम काल वे ग्रयो मे उसी का व्यवहार मिलता है। 'शाकुन्तल' आदि की प्राकृत मे बहुत से प्राचीन प्रयोग मिलते हैं जिनका व्यवहार छठी शताब्दी मे नही था। इसलिए नाटककार कालिदास का होना, विक्रमादित्य प्रथम (मालवपति) के समय-ईसा पूर्व पहली शताब्दी में ही निर्धारित किया जा सकता है। काव्यकार कालिदास अनुमान से पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और छठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जीवित थे। वे काश्मीर के थे, ऐसा लोगों का मत है। 'मेघदूत' में जो अलका का वर्णन है, वह काश्मीर-वियोग का वर्णन है। यदि ये काश्मीर के न होते तो विल्हण को यह लिखने का साहस न होता 'सहोदरा कुंकुमकेसराणां सार्धन्तनूनं कविताविलासा। न शारदादेशमपास्य दृष्टस्तेषां यदन्यत्र मयाप्ररोहः॥' पांच सौ वर्ष के प्राचीन 'पराक्रम बाहु चरित्र' मे इसका उल्लेख है कि सिंहल के राजकुमार धातुसेन (कुमारदास) मे वालिदास की बड़ी मित्रता थी। उसने कालिदास को वहां बुलाया। (महावंश के अनुसार इनका राज्यकाल ५११ से स्कंदगुप्त विक्रमादित्य-परिचय : ४१