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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४११

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प्रसाद हीरक जयन्ती पर हुए 'इन्दु' के कुछ अंकों के पुनर्मुद्रण के साथ समकालीनों के संस्मरण की योजना थी-उसमे स्व० जिज्जाजी का प्रकाशित संस्मरण यहाँ उद्धृत है -(मं०) बाबू जयशंकर प्रसाद यद्यपि अब इस नश्वर जगत में नहीं हैं, पर हिन्दी जगत में उनकी कीर्ति और स्मृति सदा अमर रहेगी। वे उन दुर्लभ विभूतियों में थे जो इस अवनीतल पर किसी का कुछ लेने नही अपितु अपना कुछ देने आते हैं। उन्होंने निःस्वार्थ सेना भाव से जो कुछ भी दिया उससे निश्चय ही साहित्य का भंडार बढ़ेगा, और साहित्यसेवियों का मदा ही हित होगा। उनकी सेवा और अर्चना से मातृभाषा एवं मातृभूमि दोनों ही धन्य हुई हैं। उनके सम्बन्ध में यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि वे अपने मृत्युहीन प्राण के साथ जो कुछ भी प्रसाद गुण लाए, वह सब उदारतापूर्वक वे दूसरों के लिये छोड़ गये । वे जीवन और मृत्यु दोनों ही मे महान थे। उन्हे स्वयं कभी कीर्ति या प्रतिष्ठा की कामना नही हुई, पर साहित्य जगत ने अपने नररत्न की कृतियों को ममझा, परखा और उन्हें सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया। प्रसाद जी की अन्तिम अनुपम न मायिनी' के लिए उन्हें हिन्दी माहित्य जगत का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला, इस तरह साहित्य जगत ने उनका और अपना भी गौरव बढ़ाया, साथ ही उसने यह भी दिखा दिया कि यह अपने अमर महाकवि को कभी न भूलेगा। प्रसाद जी एक उच्च कोटि के विद्वान और प्रखर प्रतिभाशाली पुरुष थे। उनकी भावपूर्ण विचारधारा मौलिक थी, और उनमें मत्य-ज्ञान की एक ऐसी अलौकिक ज्योति थी कि उसका असर दूसरों पर भी पड़ता था। वे कवि थे, और कवि से बढ़कर सिद्धहस्त कलाकार थे। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी, इस कारण गद्य और पद्य दोनों पर उनका समान अधिकार था। उन्होंने रोचक कवितायें लिखने के अतिरिक्त कहानी, नाटक, उपन्यास, इतिहास आदि सभी क्षेत्रों में अपनी लेखनी का चमत्कार दिखाया। इस कारण कितने ही विद्वान लेखकों ने उनकी तुलना महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर से की है, क्योंकि रवि ठाकुर की ही तरह प्रसाद जी ने भी साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति की है । इन पंक्तियों के अंकिचन लेखक की प्रसाद जी से दीर्घ काल से घनिष्ठ मंत्री थी, और उनके साहित्यिक तथा सामाजिक जीवन, और उनके गुणों को देखने का यथेष्ट अवसर मिलता था। वे कोई साधारण विद्याप्रेमी नही थे। वे जिस विषय पर लेखनी उठाते, उसे पूर्ण विचार और अधिकार के साथ लिखते थे। 'चन्द्रगुप्त' नाटक लिखते समय उन्होंने, ग्रीक पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद का कितना गहन अध्ययन संस्मरण पर्व : १०७