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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३०

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उनके आत्मीय होने का दावा करने वाले मुच्छन बोले, "शिवरात्रि के प्रसाद में आचमन तो लेंगे ही।" बूटी इतनी स्वादिष्ट थी कि शुक्ल जी दो बार भाचमन कर गये । विनोद द्वारा रोक दिये जाने का"उग्र' पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा । वह रंग पर आ गये। उन्हें रंग पर आया हुआ देखने का प्रभाव औरो पर भी हुआ और सभी मस्त थे। बाबू साहब बूटी पीते कम थे परन्तु बढावा देकर औरो को अधिक पिला देने के शौकीन थे। इसलिए वह हम सबमे अकेले संयत थे और सबकी बातों में समान रस ले रहे थे। पहले 'उग्र' ही बोले, "रंग जमला जहा सरोतर चक । ___ऊ गुरुन कऽ बनारसी बैठक ।" शुक्ल जी ने पूछ ही लिया, "सरोतर चक मे सरोतर की क्या व्यंजना है ? वह सर्बत्र का रूपान्तर है क्या ?" मास्टर साहब ने एक आचार्य की मुद्रा से व्याख्या करते हुए कहा, 'सरोतर' बनारसी मुहावरा है। यह 'सर्वत्र चक' के अर्थ मे नही, “सब ओर से चक या चकाचक के अर्थ में प्रपुक्त होता है।" शुक्लजी बोले, "बनारसी बैठक मे आज बनारसी काव्य सुना जाय । हा, उग्र जी और कुछ सुनाइए।" फिर क्या था, उन के बनारसी काव्य-ज्ञान का पिटारा खुल गया। उन्होंने अत्यन्त भावुक स्वर मे गाना आरम्भ किया, "मुह चूम लेईला केहू सुन्दर जे पाई ला। हम ऊ हई जे ओठे पर तरुआर खाई ला । पुछली कि काहे आखी मे सुरमा लगाव लऽ । कहले कि राजा छूरी के पत्थर चटाईला।" (तेग अलीकृत । सं०) अपनी ओर मम्बोधन करते हुए उनका यह गीत सुनाना शुक्ल जी को अभद्र लगा। 'उग्र' ने बूटी के तार मे कुछ कर्ण कटु घर मे ही यह गीत सुनाया था, परन्तु शुक्लजी ने उनके सुरीले न होने के विरुद्ध कोई बात न कही । सुनते थे कि कभी मनमोहन पुस्तकालय मे उग्र का 'मधुकर अब न होहिं वेहि बेली' सुनकर उन्होंने असुर (अ-सुर) शब्द से उन पर छीटा फेका था, और प्रत्युत्पन्नमति 'उग्र' ने उन्हें ससुर (स-सुर) बताते हुए उनके आक्षेपों को कई वर्षों के लिए ठण्ठा कर दिया था। उन्होंने 'छुरी के पत्थर चटाईला' की शंसा मे कुछ शब्द कहे। यह शब्द उनके द्वारा विषय परिवर्तन कराने की भूमिका-मात्र जान पड़े क्योंकि उन्होंने तत्काल ही १२६ : प्रसाद वाङ्मय